Tuesday, December 15, 2009

आज्ञाकारी पुत्र

महात्मा गाँधी जी बचपन से ही सत्य और अहिंसा का पालन करते थे। कभी झूठ नहीं बोलते थे, कभी गलत काम नहीं करते थे। ये बातें उन्होंने अपनी माँ से सीखी थीं। जानते हो उन्होंने एक बार माँ को भी सच का पाठ पढ़ाया था।
2 अक्टूबर, 1869 को करमचंद गाँधी के घर पुत्र का जन्म हुआ। शिशु का नाम मोहनदास रखा गया। उसकी माँ पुतलीबाई प्यार से मोहन को मोनिया कहकर पुकारतीं। मोहन भी अपनी माँ को बहुत चाहता था। माँ की हर बात ध्यान से सुनता और उसे पूरा करने की कोशिश करता।

बचपन से मोहन की बुद्धि बहुत तेज थी। वह सवाल पूछ-पूछ कर माँ को परेशान कर डालता। मोहन के घर में एक कुआँ था। कुएँ के चारों ओर पेड़-पौधे लगे हुए थे। कुएँ के कारण बच्चों को पेड़ पर चढ़ना मना था। मोहन सबकी आँख बचा, जब-तब पेड़ पर चढ़ जाता। एक दिन उसके बड़े भाई ने मोहन को कुएँ के पास वाले पेड़ पर चढे़ देखा। उन्होंने मोहन से कहा-

”मोहन, तुझे पेड़ पर चढ़ने को मना किया था। पेड़ पर क्यों चढ़ा है, चल नीचे उतर।“

”नहीं, हम नहीं उतरेंगे। हमें पेड़ पर मजा आ रहा है।“
क्रोधित भाई ने मोहन को चाँटा मार दिया रोता हुआ मोहन माँ के पास पहॅुंचा और बड़े भाई की शिकायत करने लगा।

”माँ, बड़े भइया ने हमें चाँटा मारा। तुम भइया को डाँटो।“

माँ काम में उलझी हुई थी। मोहन माँ से बार-बार भाई को डाँटने की बात कहता गया। तंग आकर माँ कह बैठी-

”उसने तुझे मारा है न? जा, तू भी उसे मार दे। मेरा पीछा छोड़ एमोनिया। तंग मत कर।“

आँसू पोंछ मोहन ने कहा-

”यह तुम क्या कह रही हो एमाँ? तुम तो कहती हो अपने से बड़ों का आदर करना चाहिए। भइया मुझसे बड़े हैं। मैं बड़े भइया पर हाथ कैसे उठा सकता हूँ? हाँ तुम भइया से बड़ी हो। तुम उन्हें समझा सकती हो कि वह मुझे न मारें।“

मोहन की बात सुन, माँ को अपनी भूल समझ में आ गई। हाथ का काम छोड़, माँ ने मोहन को सीने से चिपटा लिया। उनकी आँखों से खुशी के आँसू बह चले-

”तू मेरा राजा बेटा है मोनिया। आज तूने अपनी माँ की भूल बता दी। हमेशा सच्चाई और ईमानदारी की राह पर चलना, मेरे लाल।“

मोहन ने अपने घर और आसपास एक और बात देखी। उसने देखा कि ऊॅंची जाति के लोग मेहतर आदि को नीची निगाह से देखते। अगर गलती से कोई ऊॅंची जाति वाला नीची जाति वाले से छू जाए तो उसे नहाना पड़ता। मोहन की समझ में यह बात नहीं आती कि इंसानों के बीच यह अंतर क्यों है? एक दिन मोहन का बदन, उनके घर में सफ़ाई का काम करने वाले से छू गया। उन्होंने माँ से कहा-

”माँ, गलती से मैंने मेहतर को छू लिया। मुझे नहला दो।“

माँ सोच में पड़ गई। उस दिन मौसम ठंडा था। शाम के समय नहलाना क्या ठीक होगा? कुछ सोचकर माँ ने कहा-

”यह नहाने का समय नहीं है। जा बाजार में किसी मुसलमान को छू आ। फिर तुझे नहाना नहीं पड़ेगा।“

मोहन सोच में पड़ गया। मनुष्य तो सब एक से हैं। एक को छूने पर नहाना पड़ता है, दूसरे को छू लेने से नहाना नहीं पड़ता, ऐसा क्यों है?

माँ से पूछने पर भी सही उत्तर नहीं मिल सका। यह सवाल मोहन के मन में हमेशा बना रहा। जब वे बड़े हुए तो उन्होंने लोगों को यही समझाया-

”सारे मनुष्य भगवान के बनाए हुए हैं। सब मनुष्य समान हैं। कोई जन्म से ऊॅंचा या नीचा, बड़ा या छोटा नहीं हो जाता। सबको प्यार करना ही ठीक बात है।“

बचपन में मोहन की माँ उसे राजा हरिश्चंद्र और श्रवण कुमार की कहानियाँ सुनाया करतीं। मोहन के मन पर इन कहानियों ने गहरा असर डाला। उन्होंने तय किया वे भी श्रवण कुमार की तरह अपने माता-पिता का कहना मानेंगे उनकी सेवा करेंगे। घर में सब उन्हें खूब प्यार करते।

हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद मोहनदास बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए। उनकी माँ ने सुना था इंग्लैंड में लोग शराब पीते हैं। माँस खाते हैं। मोहनदास से उनकी माँ ने वचन लिया- ”बेटा, प्रतिज्ञा करो। तुम वहाँ शराब नहीं पियोगे, माँस नहीं खाओगे। मन लगाकर पढ़ाई करोगे।“

मोहन ने माँ के सामने शपथ ली- ”माँ मैं कभी शराब नहीं पीऊॅंगा, माँस नहीं खाऊॅंगा। बैरिस्टर बनकर घर लौटूँगा।“

इंग्लैंड में शराब और माँस के बिना रहना कठिन काम था, पर मोहनदास ने माँ को दिए वचन का पूरा पालन किया। उन्होंने कभी माँस नहीं खाया और कभी मदिरा नहीं चखी। पूरी मेहनत के साथ पढ़ाई पूरी करके बैरिस्टर बने। घर लौटने पर उन्हें अपनी माँ नहीं मिल सकीं। जब वह इंग्लैंड में थे, उनकी माँ की मृत्यु हो गई थी। मोहनदास को माँ से न मिल पाने का बहुत दुख रहा।

मोहनदास ने भारत की आज़ादी के लिए वकालत छोड़ दी। अंगे्रजी शासन समाप्त करने के लिए उन्होंने बहुत त्याग किए। वे कई बार जेल गए। अंगे्रजों के अत्याचार सहे। अंत में भारत स्वाधीन हुआ।

सारा देश मोहनदास कमरचंद गाँधी को प्यार करता था। उन्होंने हमेशा सादा जीवन बिताया, इसीलिए वह महात्मा गाँधी कहलाए। भारतवासी उन्हें ‘बापू’ कहते हैं। महात्मा गाँधी ने सारे विश्व को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाया। गाँधी जी का नाम भारत में ही नहीं, विदेशों में भी सम्मान के साथ लिया जाता है।

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद का नाम तो तुमने सुना ही होगा। वे महान दार्शनिक और समाज सेवी थे।


बचपन में उनका नाम नरेंद्र था। नरेंद्र पशु-पक्षियों से प्यार करते थे। जरूरतमंद लोगों की मदद करते थे। हनुमान जी की कहानी सुनकर उन्होंने सोचा कि वे भी ताकतवर बनेंगे। वे जानते थे कि जब तक लोग ताकतवर नहीं होंगे तब तक दूसरों की सेवा नहीं कर सकेंगे। आओ पढ़ें कि वे जरूरतमंद लोगों की मदद कैसे करते थे।,



”ठहर तो, अभी तुझे मजा चखाता हूँ।“ बालक नरेंद्र अपने पालतू खरगोश के पीछे दौड़ रहा था। खरगोश भागकर नरेंद्र की माँ भुवनेश्वरी की गोद में छिप गया।

”अच्छा तो तू मेरी माँ की गोद में छिपा बैठा है। मेरे खरगोश को अपनी गोद से उतार दो माँ। मैं इसके साथ खेलॅंूगा।“

भुवनेश्वरी हॅंस पड़ीं। खरगोश को गोदी से उतार उन्होंने बेटे का माथा चूम लिया। नरेंद्र को पशु-पक्षियों से बहुत प्यार था। नरेंद्र के पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता शहर के मशहूर वकील थे। नरेंद्र माता-पिता की आँखों का तारा था। बेटे की रूचि जानकर पिता ने नरेंद्र के लिए तरह-तरह के पशु-पक्षी मॅंगा रखे थे। नरेंद्र उन्हें दाना खिलाता, उनके साथ खेलता।

नरेंद्र की माँ रोज भगवान की पूजा करतीं। नरेंद्र भी माँ के साथ पूजा में बैठता। उसका गला बहुत मीठा था। माँ जब भजन गातीं तो नरेंद्र भी अपनी मीठी आवाज में माँ के साथ गाता। नरेंद्र की माँ उन्हें रामायण की कहानियाँ सुनातीं, दुर्गा माँ का पाठ करतीं। नरेंद्र को हनुमान जी का शक्तिशाली रूप बहुत अच्छा लगता। माँ ने उन्हें बताया था कि लंका युद्ध में जब लक्ष्मण जी के शक्ति. बाण लगा था तब वे मूर्छित हो गए। उन्हें बचाने के लिए संजीवनी बूटी चाहिए थी। संजीवनी बूटी एक पहाड़ पर उगती थी। हनुमान जी संजीवनी बूटी को नहीं पहचानते थे, इसलिए वह पूरे पर्वत को कंधे पर उठा लाए। नरेंद्र माँ से पूछा करते-

”माँ, क्या मैं भी हनुमान जी की तरह शक्तिशाली बन सकता हूँ?“

”क्यों नहीं, पर इसके लिए पौष्टिक भोजन और व्यायाम जरूरी है।“ माँ बालक को बहलातीं। वे कहते थे कि ताकतवर आदमी ही दूसरों की, देश की सेवा कर सकता है इसलिए ताकतवर बनने के लिए नरेंद्र रोज अखाड़े में जाकर व्यायाम करता, कुश्ती लड़ता। कुश्ती में नरेंद्र अपने साथियों को पछाड़ देता। शरीर से शक्तिशाली होने पर भी नरेंद्र का मन बहुत कोमल था। वह अपने मित्रों को सच्चे मन से प्यार करता। गरीबों पर दया करता। वह किसी को दुःखी नहीं देख सकता था। नरेंद्र की बुद्धि भी बहुत तीव्र थी। वह हमेशा प्रथम आता।

बंगाल में दुर्गापूजा का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। पूजा पास आ रही थी। कलकत्ता में जगह-जगह पूजा-पंडाल सजाए जा रहे थे। माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाई जा रही थीं। भजन-कीर्तन के कार्यक्रम चल रहे थे। एक दिन नरेंद्र अपने मित्र रवि के साथ मुहल्ले के पूजा के पंडाल में घूम रहा था। चारों ओर खुशी का वातावरण था। चनाजोर, मॅूंगफली, गुब्बारे बिक रहे थे। नरेंद्र ने रवि से कहा-

”सुना है कल बहुत अच्छी भजन. मंडली, आ रही है। हम दोनों भी रात भर भजन सुनेंगे।“

”नहीं नरेंद्र, कल मैं नहीं आ सकॅंूगा।“ रवि का चेहरा उदास था।

”क्या बात है रवि, तू क्यों नहीं आएगा? तेरा चेहरा इतना उदास क्यों है, दोस्त?“

”नरेंद्र, तू तो जानता है कि मेरे पिता जी नहीं हैं। कल मेरी गलती से माँ की आधी साड़ी जल गई। उसके पास दूसरी साड़ी नहीं है। जली हुई धोती पहनकर माँ पूजा में कैसे आएगी। इसीलिए कल मैं नहीं आऊॅंगा।“

”अरे बस इतनी-सी बात पर तू उदास हो गया। तू यहीं ठहर, मैं अभी आया।“

रवि को वहीं खड़ा छोड़कर नरेंद्र अपने घर चला गया। थोड़ी देर बाद जब वह वापस आया तो उसके हाथ में एक नई साड़ी का पैकेट था।

”अरे तू यह क्या लाया है?“ रवि आश्चर्य में था।

”चल तेरे घर चलते हैं। मौसी के लिए नई धोती लाया हूँ।“

”नहीं नरेंद्र, माँ नाराज होंगी।“

”क्यों, क्या तेरी माँ मेरी मौसी माँ नहीं हैं? क्या मुझे तू भाई की तरह प्यार नहीं करता? डर मत, चल। मौसी माँ को प्रणाम कर आऊॅं।“

रवि के घर पहॅुंच, नरेंद्र ने रवि की माँ के पाँव छूकर कहा-

मौसी, मेरी माँ ने यह साड़ी भेजी है। कहा है कि कल पूजा के लिए यही साड़ी पहनकर आना।

रवि की माँ की आँखों में आँसू आ गए। नरेंद्र को ढेर सारे आशीर्वाद दे डाले। नरेंद्र हॅंस पड़ा।

”वाह मौसी, एक साड़ी पहॅुंचाने भर के लिए इतने आशीर्वाद?“

”हाँ बेटा, भगवान तुझ-सा बेटा हर माँ को दे। देखना एक दिन तेरा नाम सारी दुनिया में फैलेगा।“

”नहीं मौसी, माँ से पूछना उसे कितना परेशान करता हूँ।“

”जिसके दिल में दुखियों के लिए इतनी दया हो, वह जरूर महान व्यक्ति बनेगा। मेरी बात याद रखना।“

शाम को पूजा का पंडाल रोशनी से जगमगा रहा था। लोगों की भीड़ देवी के दर्शन के लिए उमड़ी आ रही थी। भजन-कीर्तन करने वाले अपने साज तैयार कर रहे थे। रवि और नरेंद्र भी उनके पास जाकर बैठ गए। नरेंद्र की संगीत में बहुत रूचि थी। रवि ने नरेंद्र से कहा-

”नरेंद्र तेरी आवाज कितनी मीठी है। जब तू गाता है तो जी चाहता है, तेरा भजन कभी समाप्त न हो। आज तू भी अपना भजन गाना।“

”नहीं रवि, यहाँ बहुत प्रसिद्ध भजनीक आते हैं। मैं उनके सामने कैसे गा सकता हूँ?“

भजन का कार्यक्रम शुरू हो गया। भजनीक के साथ नरेंद्र भी अपनी मीठी आवाज में गीत गा रहा था। नरेंद्र के पिता ने कहा-

”बेटा, तेरा गला इतना सुरीला है। एक भजन तू अकेले गा। देवी माँ तूझे आशीर्वाद देंगी।“

नरेंद्र के गीत पर लोग झूम उठे। कीर्तन मंडली वालों ने भी नरेंद्र की पीठ ठोंकी। एक दिन नरेंद्र को स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सामने भी गीत गाने का मौका मिला। स्वामी रामकृष्ण परमहंस एक महान संत थे। नरेंद्र का गीत सुनकर वह प्रसन्न हो उठे। उन्होंने नरेंद्र से कहा-

”तुम लोगों की भलाई करने के लिए इस संसार में आए हो। तुम साधारण मनुष्य नहीं हो।“

नरेंद्र ने स्वामी जी से पूछा-

”क्या आपने भगवान को देखा है, स्वामी जी?“

”हाँ, मैंने भगवान को वैसे ही देखा है, जैसे तुझे देख रहा हूँ।“ हॅंसकर परमहंस जी ने जवाब दिया।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का नरेंद्र पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह उनका शिष्य बन गया। नरेंद्र का नाम विवेकानंद रखा गया। उन्होंने कई वर्षो तक उनसे ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी विवेकानंद ने लोगों को हिंदू धर्म का सच्चा अर्थ समझाया। उन्हें बताया कि मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है। अमेरिका के शिकागो नगर में उन्होंने एक भाषण दिया। उनके भाषण से कई विदेशी भी उनके भक्त बन गए। उन्होंने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रामकृष्ण मठ की स्थापना की। यह मठ गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा करता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि मानव की सेवा ही वास्तव में ईश्वर की सेवा है। स्वामी विवेकानंद ने लोगों की भलाई और सेवा में अपना पूरा जीवन बिताया।

श्रवण कुमार

श्रवण कुमार का नाम इतिहास में मातृभक्ति और पितृभक्ति के लिए अमर रहेगा। उसके माँ-बाप बूढ़े थे, अंधे थे। वह दिन भर उनकी सेवा करता। वह कभी काम के कारण शिकायत न करता।


उसने विवाह किया। उसकी पत्नी उसके बूढे माता.पिता का तिरस्कार करती थी। वह नाराज़ होकर घर छोड़कर चली जाती है। फिर भी श्रवण पत्नी के लिए माँ-बाप को नहीं छोड़ता।

एक दिन श्रवण के माँ-बाप तीर्थ यात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट करते हैं। उन दिनों रेल या बस नहीं थी। देखो कैसे श्रवण उन्हें तीर्थ पर ले जाता है।,

बहुत समय पहले श्रवण कुमार नाम का एक बालक था। श्रवण के माता-पिता अंधे थे। श्रवण अपने माता-पिता को बहुत प्यार करता। उसकी माँ ने बहुत कष्ट उठाकर श्रवण को पाला था। जैसे-जैसे श्रवण बड़ा होता गया, अपने माता-पिता के कामों में अधिक से अधिक मदद करता।

सुबह उठकर श्रवण माता-पिता के लिए नदी से पानी भरकर लाता। जंगल से लकड़ियाँ लाता। चूल्हा जलाकर खाना बनाता। माँ उसे मना करतीं-

”बेटा श्रवण, तू हमारे लिए इतनी मेहनत क्यों करता है? भोजन तो मैं बना सकती हूँ। इतना काम करके तू थक जाएगा।“

”नहीं माँ, तुम्हारे और पिता जी का काम करने में मुझे जरा भी थकान नहीं होती। मुझे आनंद मिलता है। तुम देख नहीं सकतीं। रोटी बनाते हुए, तुम्हारे हाथ जल जाएँगे।“

”हे भगवान! हमारे श्रवण जैसा बेटा हर माँ-बाप को मिले। उसे हमारा कितना खयाल है।“ माता-पिता श्रवण को आशीर्वाद देते न थकते।

श्रवण के माता-पिता रोज भगवान की पूजा करते। श्रवण उनकी पूजा के लिए फूल लाता, बैठने के लिए आसन बिछाता। माता-पिता के साथ श्रवण भी पूजा करता।

मता-पिता की सेवा करता श्रवण बड़ा होता गया। घर के काम पूरे कर, श्रवण बाहर काम करने जाता। अब उसके माता-पिता को काम नहीं करना होता।

श्रवण के माता-पिता को बेटे के विवाह की चिंता हुई। अंत में एक लड़की के साथ श्रवण कुमार का विवाह हो गया। श्रवण की पत्नी का स्वभाव अच्छा नहीं था। वह आलसी और स्वार्थी स्त्री थी। उसे श्रवण के अंधे माता-पिता की सेवा करना अच्छा नहीं लगता। अक्सर माता-पिता को लेकर वह श्रवण से झगड़ा करती। वह अपने लिए अच्छा भोजन बनाती, पर श्रवण के माता-पिता को रूखा-सूखा खाना देती। एक दिन श्रवण ने देखा उसके माता-पिता नमक से रोटी खा रहे हैं और उसकी पत्नी पूरी और मालपुए का भोजन कर रही है। श्रवण को क्रोध आ गया।

”यह क्या माँ-पिता जी को रूखी रोटी और खुद पकवान खाती हो। तुम्हें शर्म नहीं आती?“

”उन्हें खाना देती हूँ, यही क्या कम है। मैं किसी की दासी नहीं हूँ।“ श्रवण की पत्नी ने तमक कर जवाब दिया।

”क्या वे तुम्हारे माता-पिता नहीं हैं? बड़ों के साथ ऐसा बरताव क्या ठीक बात है?“

”नहीं, वे मेरे कोई नहीं लगते। मैं उनकी सेवा करने नहीं आई हूँ। मैं अभी यहाँ नहीं रह सकती। मैं जा रही हूँ। तुम चाहो तो मेरे साथ आ सकते हो। नहीं तो तुम इनके साथ बने रहो। मैं चली।“

ण की पत्नी घर छोड़कर जाने लगी। बहुत समझाने पर भी वह नहीं रूकी न श्रवण की बात मानी, न फिर कभी वापस आई। अपना दुख भुलाकर श्रवण फिर बूढे़ माता-पिता की सेवा में जुट गया। काम पर जाने के पहले वह उनके सारे काम पूरे करके जाता। घर लौटकर उनकी सेवा करता। रात में उनके पैर दबाता। माता-पिता के सोने के बाद खुद सोता।

एक दिन श्रवण के माता-पिता ने कहा-

”बेटा, तुमने हमारी सारी इच्छाएँ पूरी की हैं। अब एक इच्छा बाकी रह गई है।“

”कौन-सी इच्छा माँ? क्या चाहते हैं पिता जी? आप आज्ञा दीजिए। प्राण रहते आपकी इच्छा पूरी करूँगा।“

”हमारी उमर हो गई अब हम भगवान के भजन के लिए तीर्थ. यात्रा पर जाना चाहते हैं बेटा। शायद भगवान के चरणों में हमें शांति मिले।“

श्रवण सोच में पड़ गया। उन दिनों आज की तरह बस या रेलगाड़ियाँ नहीं थी। वे लोग ज्यादा चल भी नहीं सकते थे। माता-पिता की इच्छा कैसे पूरी करूँ, यह बात सोचते-सोचते श्रवण को एक उपाय सूझ गया। श्रवण ने दो बड़ी-बड़ी टोकरियाँ लीं। उन्हें एक मजबूत लाठी के दोनों सिरों पर रस्सी से बाँधकर लटका दिया। इस तरह एक बड़ा काँवर बन गया। फिर उसने माता-पिता को गोद में उठाकर एक-एक टोकरी में बिठा दिया। लाठी कंधे पर टाँगकर श्रवण माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने चल पड़ा।

श्रवण एक-एक कर उन्हें कई तीर्थ स्थानों पर ले जाता है। वे लोग गया, काशी, प्रयाग सब जगह गए। माता-पिता देख नहीं सकते थे इसलिए श्रवण उन्हें तीर्थ के बारे में सारी बातें सुनाता। माता-पिता बहुत प्रसन्न थे। एक दिन माँ ने कहा-”बेटा श्रवण, हम अंधों के लिए तुम आँखें बन गए हो। तुम्हारे मॅुंह से तीर्थ के बारे में सुनकर हमें लगता है, हमने अपनी आँखों से भगवान को देख लिया है।“

”हाँ बेटा, तुम्हारे जैसा बेटा पाकर, हमारा जीवन धन्य हुआ। हमारा बोझ उठाते तुम थक जाते हो, पर कभी उफ़ नहीं करते।“ पिता ने भी श्रवण को आशीर्वाद दिया।

”ऐसा न कहें पिता जी, माता-पिता बच्चों पर कभी बोझ नहीं होते। यह तो मेरा कर्तव्य है। आप मेरी चिंता न करें।“

एक दोपहर श्रवण और उसके माता-पिता अयोध्या के पास एक जंगल में विश्राम कर रहे थे। माँ को प्यास लगी। उन्होंने श्रवण से कहा-

बेटा, क्या यहाँ आसपास पानी मिलेगा? धूप के कारण प्यास लग रही है।

”हाँ, माँ। पास ही नदी बह रही है। मैं जल लेकर आता हूँ।“

श्रवण कमंडल लेकर पानी लाने चला गया।

अयोध्या के राजा दशरथ को शिकार खेलने का शौक था। वे भी जंगल में शिकार खेलने आए हुए थे। श्रवण ने जल भरने के लिए कमंडल को पानी में डुबोया। बर्तन मे पानी भरने की अवाज़ सुनकर राजा दशरथ को लगा कोई जानवर पानी पानी पीने आया है। राजा दशरथ आवाज सुनकर, अचूक निशाना लगा सकते थे। आवाज के आधार पर उन्होंने तीर मारा। तीर सीधा श्रवण के सीने में जा लगा। श्रवण के मॅुंह से ‘आह’ निकल गई।

राजा जब शिकार को लेने पहॅुंचे तो उन्हें अपनी भूल मालूम हुई। अनजाने में उनसे इतना बड़ा अपराध हो गया। उन्होंने श्रवण से क्षमा माँगी।

”मुझे क्षमा करना एभाई । अनजाने में अपराध कर बैठा। बताइए मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?“

”राजन्, जंगल में मेरे माता-पिता प्यासे बैठे हैं। आप जल ले जाकर उनकी प्यास बुझा दीजिए। मेरे विषय में उन्हें कुछ न बताइएगा। यही मेरी विनती है।“ इतना कहते-कहते श्रवण ने प्राण त्याग दिए।

दुखी हृदय से राजा दशरथ, जल लेकर श्रवण के माता-पिता के पास पहॅुंचे। श्रवण के माता-पिता अपने पुत्र के पैरों की आहट अच्छी तरह पहचानते थे। राजा के पैरों की आहट सुन वे चैंक गए।

”कौन है? हमारा बेटा श्रवण कहाँ है?“

बिना उत्तर दिए राजा ने जल से भरा कमंडल आगे कर, उन्हें पानी पिलाना चाहा, पर श्रवण की माँ चीख पड़ी- ”तुम बोलते क्यों नहीं, बताओ हमारा बेटा कहाँ है?“

”माँ, अनजाने में मेरा चलाया बाण श्रवण के सीने में लग गया। उसने मुझे आपको पानी पिलाने भेजा है। मुझे क्षमा कर दीजिए।“ राजा का गला भर आया।

”हाँ श्रवण, हाय मेरा बेटा“ माँ चीत्कार कर उठी। बेटे का नाम रो-रोकर लेते हुए, दोनों ने प्राण त्याग दिए। पानी को उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया। प्यासे ही उन्होंने इस संसार से विदा ले ली।

सचमुच श्रवण कुमार की माता-पिता के प्रति भक्ति अनुपम थी। जो पुत्र माता-पिता की सच्चे मन से सेवा करते हैं, उन्हें श्रवण कुमार कहकर पुकारा जाता है। सच है, माता-पिता की सेवा सबसे बड़ा धर्म है।

कहा जाता है कि राजा दशरथ ने बूढ़े माँ-बाप से उनके बेटे को छीना था। इसीलिए राजा दशरथ को भी पुत्र वियोग सहना पड़ा रामचंद्र जी चैदह साल के लिए वनवास को गए। राजा दशरथ यह वियोग नहीं सह पाए। इसीलिए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

शहीद भगत सिंह

शहीद का अर्थ है जो देश के लिए अपनी जान दे दे। भारत देश पर अंग्रेज हुकूमत कर रहे थे। भारत माता अंग्रेजों की गुलाम थीं। भारत माता को स्वतंत्र करने के लिए भगत सिंह लड़े और इस लड़ाई में अपनी जान दे दी। इसीलिए हम उन्हें शहीद भगत सिंह कहते हैं।


अब हम पढ़ेंगे कि बचपन से ही उनके मन में अंग्रेजों से लड़ने की बात कैसे घर कर गई।,



पंजाब के लायलपुर के एक गाँव बंगा में, एक शिशु का जन्म हुआ। दादी ने बड़े प्यार से उस बच्चे का नाम भगत सिंह रखा। सब भगत सिंह को खूब प्यार करते। घर में दादा-दादी, माता-पिता, बडे़ भाई-बहन और चाचा-चाची साथ रहते। सबके बीच खेलकर भगत सिंह बड़ा होने लगा।

भगत सिंह के जन्म के समय भारत में अंग्रेजों का शासन था। भगत सिंह के दादा, पिता और चाचा सब देश को आजाद कराने की कोशिश में जी-जान से जुटे हुए थे। घर के लोगों की बातचीत का भगत सिंह के मन पर गहरा असर पड़ा। वह बचपन से ही भारत की आजादी के सपने देखने लगा। सॅंझले चाचा की मृत्यु पर उसकी चाची रो रही थीं। चाची को तसल्ली देते हुए बालक भगत सिंह ने कहा-

”चाची जी, रोइए मत। जब मैं बड़ा हो जाऊॅंगा, अंग्रेजों को भारत से भगा दॅंूगा और चाचा जी को वापस लाऊॅंगा।“ चाची ने भगत को सीने से चिपका लिया।

पढ़ने लायक उम्र होने पर भगत सिंह को गाँव के प्राइमरी स्कूल में भर्ती करा दिया गया। वे पढ़ाई में बहुत तेज थे। भगत सिंह अपने गुरू का बहुत आदर करते थे। जब वे चैथी कक्षा में थे उनके मास्टर जी ने बच्चों से पूछा-

”बच्चों, तुम बड़े होकर क्या करना चाहोगे?“

एक बच्चे ने कहा-

”मैं बड़ा होकर खेती-बाड़ी करूँगा और फिर शादी करूँगा।“ सब हॅंस पड़े। भगत सिंह ने अकड़कर कहा-

”ये सब बड़े काम नहीं हैं। मैं हरगिज शादी नहीं करूँगा। मैं तो अंगे्रजों को देश से निकाल बाहर करूँगा।“ सब भगत सिंह की तेजी देखते रह गए। मास्टर जी ने उन्हें शाबाशी देकर कहा-

”भगत सिंह जरूर अपना वादा पूरा करेगा। पंजाब के जलियाँवाला बाग में एक सभा हो रही थी। अंग्रेजों ने बेकसूर हिंदुस्तानियों पर गोलियाँ बरसा दीं। सैकड़ों देशवासियों की जानें चली गई। उस वक्त भगत सिंह सिर्फ बारह बर्ष के थे। उनके मन में आग धधक उठी। निहत्थों पर गोलियाँ चलाना अन्याय है।“

भगत सिंह जलियाँवाला बाग में अकेले चले गए। चारों ओर सिपाही थे। वे जरा भी नहीं डरे। बाग की मिट्टी एक शीशी में भरकर ले आए। घर में आम आए हुए थे। भगत सिंह को आम बहुत पसंद थे। उनकी बहन ने उन्हें आम खाने को बुलाया। भगत सिंह ने आम खाने से इनकार कर दिया। बहन को अकेले में ले जाकर शीशी में बंद मिट्टी दिखाकर कहा-

”अंग्रेजों ने हमारे सैकड़ों लोग मार दिए। ये खून उन्हीं शहीदों का है। मुझे अंग्रेजों से इस खून का बदला लेना है।“

भगत सिंह कई वर्षो तक उस शीशी को अपने पास रखे रहे और उस पर फूल चढ़ाते रहे।







कॅलेज पहॅुंचने पर गाँधी जी की बातों का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे काॅलेज में भी मित्रों के साथ भारत की आजादी की बातें करते। नेशनल काॅलेज में उन्होंने महाराणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त, भारत दुर्दशा जैसे नाटकों में भाग लिया। इन सभी नाटकों में देश-भक्ति की भावना थी।

भगत सिंह की तरह उनके मित्र सुखदेव और राजगुरू भी आजादी के दीवाने थे। तीनों मिलकर गाते-

”मेरा रंग दे बसंती चोला,

माँ रंग दे बसंती चोला।“

भगत सिंह के माता-पिता उनका विवाह कर देना चाहते थे, पर भगत सिंह को तो देश को आज़ाद कराना था। उन्होंने माता-पिता से कह दिया-

”गुलाम देश में र्फ़ि मौत ही मेरी पत्नी हो सकती है। मैं देश को आजादी दिलाए बिना शादी नहीं कर सकता।“

अपने देश को आजाद कराने के लिए भगत सिंह अपने मित्रों के साथ जी जान से जुट गए। उन्हें लगा बम के धमाकों से अंग्रेजों को डराया जा सकता है। अपने एक साथी के साथ उन्होंने असेंबली में बम फेंका और खुद गिरफ्तारी दी।

भगत सिंह और उनके मित्रों के खिलाफ़ मुकदमा चलाया गया। उन पर बम फेंककर अंग्रेजों को मारने का दोष लगाया गया। कोर्ट ने भगत सिंह और उनके मित्र सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सजा सुनाई। सजा सुनकर तीनों मित्र हॅंस पड़े और नारा लगाया, ”वंदे मातरम्! इंकलाब जिंदाबाद“।

भगत सिंह ने अपने माता-पिता को समझाया-

”आपका बेटा देश के लिए शहीद होगा। आप लोग दुख मत कीजिएगा।“

भगत सिंह से कहा गया कि अगर वे वायसरायय से माफी माँग लें तो उनकी फाँसी की सज़ा माफ़ की जा सकती है। भगत सिंह ने माफ़ी माँगना स्वीकार नहीं किया।

भगत सिंह से फाँसी के पहले उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई। उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा-

”मैं चाहता हूँ, मैं फिर भारत में जन्म लॅंू और अपने देश की सेवा करूँ।“

फाँसी लगने के पहले तीनों मित्र एक-दूसरे के गले मिले। मनपसंद रसगुल्ले खाए। मित्रों के साथ भगत सिंह फाँसी के फंदे के पास जा पहॅुंचे। अपने हाथ से गले में फाँसी का फंदा लगाया और हॅंसते-हॅंसते फाँसी चढ़ गए। अंत तक वे नारे लगाते रहे-

”इंकलाब जिंदाबाद।“

धन्य हैं वीर भगत सिंह। उन जैसे शहीदों के त्याग से ही भारत को आज़ादी मिल सकी। मरने के बाद भी वे अमर हैं। हम उन्हें सदैव याद करते रहेंगे।



अंग्रेजों से इस खून का बदला लेंगे।

वे काॅलेज में पहॅुंचे तो वहाँ उन्हें सुखदेव और राजगुरू की मित्रता मिली। तीनों ने असेंबली पर बम फेंकने का निर्णय किया। बम फंेकने पर तीनों गिरफ्तार हुए और अदालत ने उन्हें फाँसी की सजा सुनाई। यह सुनकर वे बिल्कुल नहीं घबराए। तीनों ने ‘वंदे मातरम्। इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाया।

भगत सिंह से कहा गया कि वे अंग्रेजों से माफी माँग लें तो सजा माफ हो सकती है। लेकिन उन्होंने यह नहीं माना।

भगत सिंह ने देश के लिए अपनी जान दे दी। इसीलिए उन्हें शहीद भगत सिंह कहा जाता है।

सम्राट अशोक

सम्राट अशोक मगध के राजा थे। वे पास-पड़ोस के सभी राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लेना चाहते थे। इस कोशिश में उन्होंने कई राज्यों को जीतकर मगध के अधीन कर लिया थाए लेकिन कलिंग को जीतना आसान नहीं था। चार साल तक युद्ध हुआ, लेकिन कलिंग के राजा बहादुरी से लड़ रहे थे और सम्राट अशोक जीत नहीं पाए।


एक दिन खबर मिली कि कलिंग के राजा युद्ध में मारे गए। फिर भी अशोक की सेना कलिंग के दुर्ग के अंदर प्रवेश नहीं कर सकी।

अचानक दुर्ग का फाटक खुला और कलिंग की राजकुमारी पद्मा सैनिक की वेशभूषा में आकर अशोक से कहती हैं- हमसे लड़ो। हमें मारोगे तभी किले के अंदर जा सकते हो। सम्राट अशोक कहते हैं- यह कैसे हो सकता है? क्या मैं स्त्रियों पर हथियार चलाऊॅंगा?,



अशोकए सम्राट बिंदुसार के पुत्र थे। पिता की मुत्यु के बाद अशोक मगध के सिंहासन पर बैठे। अशोक बहुत वीर राजा थे। वे अपने राज्य को दूर-दूर तक फैलाना चाहते थे। सम्राट अशोक ने कई राजाओं को हराकर, अपने राज्य का विस्तार किया। उन दिनों कलिंग का राज्य भी मगध राज्य के समान प्रसिद्ध था।

कलिंग वासी बहुत वीर थे। वे अपने राजा और अपनी जन्मभूमि से बहुत प्यार करते थे। अपना राज्य बढ़ाने के लिए सम्राट अशोक ने कलिंग राज्य पर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर से घमासान युद्ध शुरू हो गया। चार वर्ष बीत जाने पर भी कलिंग को जीता न जा सका। कलिंग के लाखों सैनिक मारे गए, लाखों घायल हुए, पर कलिंग वालों ने हार नहीं मानी।

एक दिन सम्राट अशोक अपने शिविर में उदास बैठे थे। वे सोच रहे थे कि दोनों ओर के लाखों सैनिक मारे जा चुके हैं, पर आज तक युद्ध का कोई फैसला नहीं हो सका है। तभी एक सैनिक ने आकर सूचना दी-

”महाराज की जय हो। अभी-अभी खबर मिली है। कलिंग के महाराज युद्ध में मारे गए।“

”वाह ! यह तो बड़ी अच्छी खबर है। इसका मतलब हम युद्ध में जीत गए। मगध-राज्य अब हमारा है।“ अशोक प्रसन्न हो उठे।

”आपका सोचना ठीक है, महाराज परंतु कलिंग के किले का दरवाजा अभी भी बंद है।“ सिर झुकाकर सैनिक ने जवाब दिया।

”कोई बात नहीं, अब दरवाजा खुल जाएगा। कल मैं स्वयं कलिंग के दुर्ग का द्वार खुलवाऊॅंगा।“

”दूसरे दिन सम्राट अशोक ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया। उनके पीछे मगध के हजारों सैनिक, सम्राट अशोक की जय-जयकार कर रहे थे। कलिंग दुर्ग के सामने पहॅुंचकर सम्राट अशोक ने अपनी सेना को ललकारा-

”मगध के वीर सैनिकों, पिछले चार वर्षो से युद्ध चल रहा है। कलिंग के महाराज मारे जा चुके हैं। आओ हम शपथ लें। आज कलिंग दुर्ग के फाटक, खुलवाकर, दुर्ग पर मगध का झंडा फहराएँगे।“

”सम्राट अशोक की जय, मगध राज्य की जय।“ चारों ओर जय-जयकार गॅंूज उठी।

ष्शोर मचाती अशोक की सेना आगे बढ़ी। अचानक कलिंग दुर्ग का फाटक खुल गया। कलिंग देश की राजकुमारी पद्मा सैनिक वेष में घोड़े पर सवार खड़ी थीं। राजकुमारी पद्मा के पीछे स्त्रियों की सेना थी। राजकुमारी ने अपनी स्त्रियों की सेना से कहा-

”बहिनो, आज हमें अपने देश के सम्मान की रक्षा करनी है। जिन्होंने हमारे पिता, भाई, पति हमसे छीने हैं, वे हत्यारे आज हमारे सामने खड़े हैं। हमारे जीते जी, इस दुर्ग में ये प्रवेश नहीं कर सकते। जय भवानी ...............“ पद्मा के साथ स्त्री-सेना ने जय भवानी का हॅुंकार भरा।

सम्राट अशोक विस्मित थे। उन्होंने पूछा-

”तुम कौन हो देवी? सम्राट अशोक स्त्रियों से युद्ध नहीं करता।“

”तुम मेरे पिता के हत्यारे हो। तुम्हें मुझसे युद्ध करना होगा सम्राट।“ राजकुमारी ने गर्जना की।

”नहीं, स्त्रियों पर हथियार चलाना अधर्म है। यह अन्याय मैं नहीं कर सकता।“

”तुमने न्याय-अन्याय की चिंता कब की है एसम्राट? अपनी जीत के लिए तुमने लाखों मासूम लोगों की हत्या की है। अब तो केवल हम स्त्रियाँ बची हैं। दुर्ग पाने के लिए तुम्हें हमसे युद्ध करना पड़ेगा। ये सारी दुखी स्त्रियाँ तुमसे युद्ध करना चाहती हैं। तुमने इनके घर उजाडे़ हैं एसम्राट। क्या यह अन्याय नहीं है?“ पद्मा की आँखों से चिंगारियाँ-सी छिटक रही थीं।

”मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ, राजकुमारी। मुझसे भूल हो गई। आप जो चाहें सजा दे दें।“ तलवार फंेककर अशोक ने सिर झुका लिया।

”नहीं तुम्हें हमसे युद्ध करना होगा। उठाओ तलवार सम्राट.........................“

”नहीं राजकुमारी, आज के बाद यह तलवार कभी नहीं उठेगी। मेरा सिर हाजिर है, आप इसे काटकर अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लीजिए।“

”नहीं महाराज, हम भी निहत्थों पर वार नहीं करते। जाइए, हमने आपको क्षमा किया।“

”धन्यवाद, राजकुमारी। आज से आप कलिंग का राज्य संभालिए। मगध और कलिंग दोनों राज्य मित्र बनकर रहेंगे। आज के बाद मैं कोई युद्ध नहीं करूँगा। मैं अपने शस्त्र त्यागता हूँ।“

कभी युद्ध न करने का निर्णय लेने के बाद सम्राट अशोक, युद्ध-भूमि में गए। युद्ध-भूमि पर खून से लथपथ लाखों शव पड़े थे। हजारों घायल पानी-पानी कहकर तड़प रहे थे, कराह रहे थे, उनकी यह दशा देखकर अशोक का दिल भर आया राज्य पाने के लिए उसने कितने लोगों की हत्या कर दी। अशोक का हृदय बेचैन था। तभी उसने देखा कुछ बौद्ध भिक्षु घायलों को पानी पिला रहे थे। उनके घावों पर मरहम-पट्टी कर रहे थे। अशोक उनके सामने घुटने टेककर बैठ गए।

”मैं अपराधी हूँ एदेव। मेरे हृदय को शांति दीजिए एभिक्षुवर।“

”धर्म ही तुम्हारे हृदय को शांति दे सकता है अशोक। तुम बौद्ध धर्म की शरण में आ जाओ।“ भिक्षु ने शांति से उत्तर दिया।

”मुझे क्या करना होगाए भिक्षुवर?“

”प्रतिज्ञा करो, आज से तुम जीव-हत्या नहीं करोगे। जब तक शरीर में प्राण हैं, अहिंसा का पालन करोगे। सबसे प्रेम का व्यवहार करोगे।“

”मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, देव। मुझे बौद्ध धर्म की शरण में ले लीजिए।“ हाथ जोड़कर सम्राट अशोक ने प्रार्थना की।

”जाओ अपनी प्रतिज्ञा का पालन करो। तुम्हारे मन को अवश्य शांति मिलेगी, सम्राट।“ हाथ उठाकर भिक्षु ने सम्राट को आशीर्वाद दिया।

कलिंग-युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने कोई युद्ध नहीं किया। उसने अपनी प्रजा की भलाई और कल्याण में अपना जीवन बिताया। शांति और अहिंसा के धर्म को देश भर में फेलाया। इतना ही नहीं, उसे दूसरे देशों तक पहॅंुचाया। अशोक के राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। स्वयं सम्राट वेष बदलकर अपनी प्रजा का दुख-सुख जानने, घर-घर जाते थे। इतिहास में सम्राट अशोक का नाम अमर रहेगा।

सत्यवादी हरिश्चंद्र

बहुत जमाने पहले की बात है। राजा हरिश्चंद्र सच बोलने और वचन. पालन के लिए मशहूर थे। उनकी प्रसिद्धि चारों तरफ फैली थी। ऋषि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की प्रसिद्धि सुनी। वे स्वयं इसकी परीक्षा करना चाहते थे। क्या हरिश्चंद्र हर कठिनाई झेलकर भी वचन का पालन करेंगे? आओ देखें कि विश्वामित्र ने कैसी परीक्षा ली?,




सतयुग में राजा हरिश्चंद्र नाम के एक राजा थे। राजा हरिश्चंद्र दानी थे और वचन के पक्के थे। वे जो वचन देते, उसे अवश्य पूरा करते। उनके बारे में कहा जाता, चाँद और सूरज भले ही अपनी जगह से हट जाएँ, पर राजा हरिश्चंद्र अपने वचन से कभी पीछे नहीं हट सकते। राजा हरिश्चंद्र की तरह ही उनकी रानी शैव्या और राजकुमार रोहिताश्व भी वचन का पालन करना अपना कर्तव्य मानते थे।

राजा की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। ऋषि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उसी रात राजा हरिश्चंद्र ने एक सपना देखा। सपने में उन्होंने देखा, ऋषि विश्वामित्र को राजा ने अपना पूरा राज-पाट दान में दे दिया है।

आँख खुलने पर राजा ने सोचा, अगर सपने में भी उन्होंने अपना साम्राज्य मुनि विश्वामित्र को दान में दे दिया, तब अपने साम्राज्य पर उनका कोई अधिकार नहीं रह गया है। प्रातःकाल विश्वामित्र साधु के वेष में राजा के महल में पहॅुंचे। राजा हरिश्चंद्र ने उन्हें प्रणाम कर पूछा-

”मेरे लिए क्या आज्ञा है मुनिवर?“

”जो माँगूँगा दे सकोगे राजन्?“ मुस्कराकर ऋषि ने पूछा-

”मेरा सब कुछ आपका ही है ऋषिवर। बताइए क्या सेवा करूँ? राजा हरिश्चंद्र ऋषि विश्वामित्र को पहचान गए थे।“

”मुझे तुम्हारा पूरा राज्य, धन-संपत्ति और खजाना चाहिए।“

”यह सब तो पहले ही आपको दे चुका हूँ एऋषिवर।“ मुस्करा कर राजा ने कहा।

”वह कैसे राजन्?“ ऋषि विश्वामित्र आश्चर्य में पड़ गए।

”आज रात सपने में ही अपना पूरा राज-पाट, धन-संपत्ति आपको दे चुका हूँ, मुनिवर। अब मेरा सब कुछ आपका है।“

”मुझे खुशी है, तुम अपने वचन के पक्के हो राजन्। चलो, तुम्हारा साम्राज्य अब मेरा हुआ। अब बताओ दक्षिणा में तुम क्या दोगे?“ ऋषि उनकी पूरी परीक्षा ले रहे थे।

राजा सोच में पड़ गए। वह जानते थे दक्षिणा के बिना दान पूरा नहीं होता। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा-

”मुनिवर, अब तो हमारे पास केवल हमारे शरीर बचे हैं। काशी नगरी के बाजार में हम अपने को बेचेंगे। जो मूल्य मिलेगा, वही आपकी दक्षिणा होगी।“

राजा अपनी रानी और पुत्र के साथ काशी की मंडी मे गए। वहाँ उन्होंने कहा- ”हम तीनों अपने को बेचने आए हैं। जो हमें खरीदेगा, हम उसकी जीवन भर सेवा करते रहेंगे।“

बाजार में एक डोम आया था। उसके पास बहुत काम था और उसे एक नौकर की आवश्यकता थी। डोम ने राजा को खरीद लिया। एक ब्राह्ममण ने रानी शैव्या और राजकुमार रोहिताश्व को खरीदा। राजा होकर भी हरिश्चंद्र ने एक डोम के यहाँ काम करना स्वीकार किया। वह उसकी हर तरह से सेवा करते। छोटे-से-छोटे काम करने मेें भी न हिचकते।

रानी शैव्या और राजकुमार रोहिताश्व ब्राह्ममण परिवार की सेवा करते। एक दिन रोहिताश्व ने माँ से पूछा-

”माँ, हम राजमहल में रहते थे, हमारे यहाँ इतने दास-दासी थे। अब हम दूसरों के यहाँ काम करके रूखा-सूखा क्यों खाते हैं?“

”बेटा, वचन का पालन करने के लिए तुम्हारे पिता ने अपना सब कुछ दान में दे दिया। अब हमारे पास कुछ नहीं बचा है।“

”माँ, पिता जी ने अपना पूरा राज-पाट खजाना, सब कुछ दान में क्यों दे दिया?“

”बेटा, तुम्हारे पिता जी से अगर कोई कुछ माँगे तो वह देने में कभी नहीं चूकते। वे दानी हैं। ऋषि, विश्वामित्र ने तुम्हारे पिता से उनका साम्राज्य माँगा। तुम्हारे पिता ने सहर्ष अपना साम्राज्य उन्हें दान में दे दिया। बताओ क्या उन्होंने गलती की?“

”नहीं माँ, पिता जी ने ठीक ही किया है। लेकिन वे हमारे साथ क्यों नहीं रहते?“

”वे एक दूसरी जगह रहकर अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं, पुत्र। अब अपने शरीर पर भी हमारा अधिकार नहीं है।“

”वो क्यों माँ?“

”हमारे शरीर बेचकर जो मूल्य मिला, वो ऋषि विश्वामित्र को दक्षिणा में दे दिया गया। अब हमारे शरीरों पर हमारे स्वामी का अधिकार है। वह हमें जैसे रखेंगे, हम वैसे ही रहेंगे। उनकी सेवा करना हमारा धर्म है।“

”ओह माँ, पिता जी बहुत महान हैं। मैं जानता हूँ आने वाले समय में लोग पिता जी को बहुत आदर देंगे। उनका यश दूर-दूर तक फेलेगा।“

”तेरे पिता जी ने जो किया है, वह नाम या यश पाने के लिए नहीं किया पुत्र। उनका यही स्वभाव है।“ रानी ने बेटे को समझाया।

”तुम ठीक कहती हो, माँ।“

बहुत दिन बीत गए। राजा हरिश्चंद्र, रानी शैव्या और राजकुमार रोहिताश्व तन-मन से अपने-अपने मालिकों की सेवा करते रहे। उनके कष्ट देखकर भगवान का दिल भी पसीज गया। विश्वामित्र की परीक्षा पूरी हुई। विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र के पास जाकर कहा-

”तुम्हारी परीक्षा पूरी हुई एराजन्। तुम परीक्षा में खरे उतरे। वचन-पालन, दान और सच्चाई के लिए तुम्हारा नाम हमेशा आदर के साथ लिया जाता रहेगा। मैं तुम्हें तुम्हारा पूरा साम्राज्य वापस लौटाता हूँ।“

”नहीं मुनिवर, दिया हुआ दान वापस लेना अधर्म है। अब इस साम्राज्य पर मेरा कोई अधिकार नहीं है।“ हाथ जोड़कर राजा ने अपना राज्य वापस लेना अस्वीकार कर दिया।

”मैं ऋषि होकर इस साम्राज्य का क्या करूँगा, राजन्। तुम राजा की तरह शेष जीवन बिताओ।“

”यह असंभव है ऋषिवर। अब मैं राज-पाट त्याग कर, भगवान की सेवा करूँगा।“

बहुत कहने पर भी राजा हरिश्चंद्र ने अपना साम्राज्य वापस नहीं लिया। अंत में राजकुमार रोहिताश्व को युवराज बनाया गया। राजा हरिश्चंद्र ने रानी शैव्या के साथ वानप्रस्थ ग्रहण कर लिया।

राजा हरिश्चंद्र का त्याग और वचन-पालन, आदर्श है। वचन-पालन और त्याग के लिए राजा हरिश्चंद्र को आज भी याद किया जाता है।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई

तुम लोगों ने रानी लक्ष्मीबाई का नाम सुना होगा। वे झाँसी की रानी थीं। उन्होंने भारत पर शासन कर रहे अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया था।


वे बचपन से ही वीर थीं। वे और बालिकाओं की तरह गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं खेलती थीं, बल्कि युद्ध के खेल खेलती थीं। तलवार, कटार ही उनके खिलौने थे।

आओ, हम उनके बचपन की कहानी पढ़े।,



कक्षा में बच्चे कविता-पाठ कर रहे थे-

”चमक उठी सन् सत्तावन में,

वह तलवार पुरानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मॅंुह,

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो,

झाँसी वाली रानी थी।“

कविता दोहराती नेहा, अचानक चुप हो गई। अध्यापिका की नजर नेहा पर पड़ी, वह न जाने क्या सोच रही थी। उन्होंने प्यार से पूछा-

”क्या बात है नेहा, कविता पाठ करते हुए तुम चुप क्यों हो गई?“

”गुरू जी, मैं सोच रही थी, लक्ष्मीबाई तो स्त्री थीं। उन्हांेने अंग्रेजो से लड़ाई कैसे की होगी?“

”हाँ नेहा, लक्ष्मीबाई स्त्री जरूर थीं, पर कमजोर स्त्री नहीं। वीरता में पुरूषों से कहीं कम नहीं थीं। भारत की आजादी के लिए, घोड़े की पीठ पर बैठकर, उन्होंने दोनों हाथों से तलवार चलाई थी। कितने ही अंग्रेजों को तलवार से मार गिराया।“

”गुरू जी, क्या वह बचपन से ही इतनी वीर थीं?“ नेहा ने दूसरा सवाल किया।

”हाँ नेहा, लक्ष्मीबाई साधारण लड़की नहीं थीं। चलो बच्चों, आज मैं तुम्हें लक्ष्मीबाई की कहानी सुनाती हूँ।“

”जी गुरू जी, हमें उनके बचपन की बातें सुनाइए।“ बच्चे कहानी सुनने को उत्सुक थे।

”प्यारे बच्चों, लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मनुकर्णिका था, पर सब प्यार से उसे मनु पुकारते थे।“

”गुरू जी, उनके पिता का क्या नाम था?“ रोहित ने पूछा।

”मनु के पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मनु उनकी अकेली संतान थी। पिता ने बेटी को बेटे की तरह पाला। मनु के मॅुंहबोले भाई का नाम ‘नाना’ था। नाना प्यार से मनु को ‘छबीली’ पुकारते। मनु का बचपन नाना के साथ बीता। वे वीर सैनिकों के कपडे़ पहनतीं, नाना के साथ खेलतीं और पढ़तीं। उन्हें लड़कियों वाले खेल पसंद नहीं थे।“

”गुरू जी, उन्हें कौन-से खेल पसंद थे?“ नेहा जानने को उत्सुक थी।

”बचपन से ही लक्ष्मीबाई लड़कों की तरह बरछी और ढाल लेकर नकली युद्ध करतीं। घोड़े पर सवारी करतीं और कटार और कृपाण ही उनकी सहेली थीं।“

”गुरू जी, देखिए इस कविता में भी यही बात लिखी है।“ रोहित ने किताब खोलकर कविता पढ़ी-

”बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थीं।“

”हाँ रोहित, उन्हें लड़कियों की तरह चूड़ियाँ पहनने या मेंहदी लगवाने का शौक नहीं था।“

”तब तो वे गुड़िया की शादी भी नहीं रचाती होंगी।“ नेहा ने ज्ञान बघारा।

”हाँ नेहा, वे तो लड़ाई के खेल खेलतीं। दुश्मनों को झूठे घेरे में डालकर, उन्हें हरातीं। उनके पास गुड़िया से खेलने का समय ही कहाँ था?“

”तब तो वे राजा-रानी या परियों की कहानी भी नहीं सुनती होंगी।“ रोहित गंभीर था।

”हाँ रोहित, मनु को तो वीरों की कहानियाँ सुनने में आनंद आता। शिवाजी जैसे वीरों की कहानियाँ उन्हें मॅुंहजबानी याद थीं। मनु की वीरता देखकर लोगों को लगता मानो मनु के रूप में स्वयं दुर्गा ने जन्म लिया है।“

”वे बचपन से युद्ध का अभ्यास करती रहीं, इसीलिए तो अंग्रेजों से लड़ सकीं।“ एक लड़की ने कहा।

”ठीक कहती हो। वे युद्ध के नकली चक्रव्यूह यानी शत्रु को घेरने के लिए घेराबंदी करतीं। फिर उस घेरे में तलवार लेकर घुस जातीं। शत्रुओं को तलवार से मार गिरातीं। कभी-कभी झूठे शिकार का खेल खेलतीं। कभी शत्रु के किले के फाटक तोड़कर शत्रु को हरातीं।“

”क्या वे सचमुच किले का फाटक तोड़ती थीं, गुरू जी?“ नेहा विस्मित थी।

”अरे बुद्धू, सुना नहीं, गुरू जी ने कहा कि वे ये सब खेल खेलती थीं।“ रोहित ने नेहा को चिढ़ाया।

”हाँ नेहा, देखो तुम्हारी कविता में भी यही बात लिखी है न-“

”नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।“ अध्यापिका ने पंक्तियाँ पढ़कर सुनाई।

”एक बात और है, वे अपने कुल की देवी की सच्चे मन से पूजा करतीं। उन्हें अपनी कुलदेवी की शक्ति में बहुत विश्वास था।“

”गुरू जी, क्या लक्ष्मीबाई का विवाह हुआ था?“ नेहा ने प्रश्न पूछा।

”हाँ नेहा, लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुआ था। विवाह के बाद मनुकर्णिका का नाम रानी लक्ष्मीबाई रखा गया। विवाह के समय झाँसी में खूब खुशियाँ मनाई गई। झाँसी वासी लक्ष्मीबाई को पाकर बहुत खुश थे।“

”क्या विवाह के बाद भी लक्ष्मीबाई युद्ध के खेल खेलती थीं, गुरू जी?“ रोहित भी जानने को उत्सुक था।

”हाँ रोहित, लक्ष्मीबाई ने राजमहल में स्त्रियों की एक सेना बनाई। उन्हें अपनी तरह बरछी, भाला, तलवार, कटार चलाने की शिक्षा दी। युद्ध में लड़ने के तरीके सिखाए।“

”वाह! यह तो बड़ी अच्छी बात थी। उन्होंने दिखा दिया कि स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती हैं।“ नेहा खुश थी।

”हाँ नेहा! पर झाँसी वालों की खुशी ज्यादा दिन टिक न सकी। कुछ समय बाद राजा की मृत्यु हो गई। सारे राज्य में शोक छा गया।

राजा की मृत्यु से अंगे्रजों को मौका मिल गया। अंग्रेज सेना ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। पुरूषों के कपड़े पहन, रानी लक्ष्मीबाई घोड़े पर सवार होकर युद्ध भूमि में पहॅुंच गई। रानी के दोनों हाथों में तलवार थी। वे अंगे्रजों की सेना को काटती-गिराती आगे बढ़ती गई। उनकी सहेलियों ने भी अंग्रेजों की सेना में खूब मारकाट मचाई थी। अंग्रेजी सेना की संख्या बहुत अधिक थी। अंत में रानी को घेर लिया गया।“

”हाँ गुरू जी, कविता में यही लिखा है“-रोहित ने जल्दी से कविता की पंक्तियाँ पढ़ीं-

”घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,

रानी एक शत्रु, बहुतेरे होने लगे वार पर वार,

घायल होकर गिरी सिंहनी,

उसे वीरगति पानी थी।“

”हाँ रोहित, अंत समय तक रानी ने हार नहीं मानी। अपनी झाँसी की रक्षा करते हुए रानी लक्ष्मीबाई ने प्राण त्याग दिए। भारत के इतिहास में रानी लक्ष्मीबाई का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया। उन्होंने हमें आजादी का महत्व सिखाया है, बच्चों।“

बच्चांे ने कविता की अंतिम पंक्तियाँ आदर के साथ दोहराई।

”दिखा गई पथ, सिखा गई, हमको जो सीख सिखानी थी, खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।“

घीसा

महादेवी जी को बच्चों से बहुत प्यार है। बच्चे प्यार से उन्हें गुरू जी कहते हैं। महादेवी गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए इलाहाबाद से झॅूसी गाँव जाती थीं।


घीसा के पिता नहीं हैं। वह पढ़ने के लिए

उनकी कक्षा में आता है। वह गुरू जी का बहुत आदर करता है। उनका कहा मानता है। उसे अपनी माँ और अपने पिल्ले से भी बहुत प्यार है।,



इलाहाबाद शहर में गंगा नदी के पार झॅंूसी नाम का एक छोटा-सा गाँव है। इसी गाँव में आठ-नौ वर्ष का एक बालक घीसा रहता था। घीसा की विधवा माँ मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपना और घीसा का पेट पालती थी।

महादेवी जी अक्सर नाव से झॅंूसी जाया करतीं। झॅंूसी में गरीब बच्चों के लिए कोई स्कूल नहीं था। महादेवी जी ने एक पीपल के पेड़ के नीचे बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। बच्चे उन्हें गुरू जी पुकारते।

एक दिन घीसा का हाथ पकडे़, उसकी माँ गुरू जी के पास आ पहॅुंची। हाथ जोड़कर उनसे बोली-

”इन बच्चों के साथ इसे भी बैठा लें एगुरू जी। बिना बाप का बच्चा है। दिन भर इधर-उधर घूमता फिरता है। इनके साथ चार अक्षर पढ़ लेगा। आपका बड़ा उपकार होगा गुरू जी।“

”क्या नाम है तेरा?“ महादेवी जी ने पूछा।

”घीसा।“ घीसा की आँखें चमक उठीं। फिर उसने पूछा- ”गुरू जी, आप हमें पढ़ाएँगी?“

”क्यों नहीं घीसा। मन लगाकर पढ़ोगे तो कुछ बन जाओगे।“

”हम खूब मन लगा के पढें़गे। आपका कहा मानेंगे गुरू जी।“

महादेवी जी चार दिन झॅंूसी जातीं। घीसा के लिए ये चार दिन बड़ी खुशी के होते। वह सुबह-सुबह पीपल के पेड़ के नीचे झाडू लगाता। गोबर से जमीन लीपता। गुरू जी के लिए चटाई बिछाता, उनकी कलम-दवात सजाकर रखता। जब गुरू जी पढ़ातीं, घीसा की आँखें उनके चेहरे पर गड़ी रहतीं। उनकी हर बात वह ध्यान से सुनता। एक दिन गुरू जी ने बच्चों को समझाया-

”बच्चों को सफ़ाई से रहना चाहिए। रोज नहाकर साफ़ कपड़े पहनने चाहिए। गंदे कपड़े जरूर धोने चाहिए।“

दूसरे दिन घीसा पढ¬¬¬¬¬़ने नहीं आया। गुरू जी ने बच्चों से पूछा-

”क्या बात है आज घीसा पढ़ने नहीं आया?“

रामू ने हॅंसते हुए जवाब दिया-

”आपने कल कहा था कि गंदे कपड़े धोकर, साफ कपड़े पहनने चाहिए। कल से ही घीसा माँ के पीछे पड़ा था। आज पैसे लेकर साबुन लाया है। इस वक्त वह अपना फटा कुरता साबुन की बट्टी से धो रहा है।“

थोड़ी देर बाद घीसा आ पहॅुंचा। उसका कुरता अभी कुछ गीला था। गुरू जी ने प्यार से कहा-

”क्यों रे घीसा, पढ़ने के समय तू क्या कर रहा था?“

”गुरू जी, हमारा कुरता बहुत गंदा था। आपने बताया साफ़ कपड़े पहनने चाहिए। कुरता धोने में देर हो गई। हमें माफ़ कर दें।“ धीमे से घीसा ने देरी का कारण बताया।

उसने शाम को जाते ही माँ से कहा- ”माँ, गुरू जी कहती हैं कि रोज कपड़े धोकर पहना करो। मैं आज कुरता धोऊॅंगा। साबुन की बट्टी मॅंगा दो न।“ माँ के पास पैसे नहीं थे। उसलने कहीं से माँगकर रात को उसे पैसे दे दिए। वह सवेरे ही दुकान पर गया। तुरंत कुरता धोकर सुखाया। लेकिन कुरता सूख नहीं रहा था। स्कूूल के लिए देर हो चुकी थी। इसीलिए वह गीला ही कुरता ऊपर डालकर भागता हुआ कक्षा में आया है।

गुरू जी ने देखा ज्यादातर बच्चों के पास एक ही कुरता था। घीसा का कुरता तो बिल्कुल फट चुका था। दूसरे दिन गुरू जी बच्चों के लिए नए कुरते और जलेबियाँ ले गई। नया कुरता पाकर घीसा की आँखें चमक उठीं। जल्दी से कुरता बदन पर लटका, गुरू जी के पाँव छू लिए।

सब बच्चों को पाँच-पाँच जलेबियाँ मिलीं। दूसरे बच्चों ने चटपट जलेबियाँ खा डालीं, पर घीसा अपनी जलेबियाँ लेकर घर भाग गया। लौटने पर गुरू जी ने पूछा-

”घीसा तूने जलेबियाँ यहाँ क्यों नहीं खाई?“ शर्माते हुए घीसा ने बताया-

”दो जलेबियाँ माँ के लिए रख आया। एक जलेबी अपने पिल्ले को खिला दी। दो हमने खाई हैं। पिल्ले को एक जलेबी कम मिली है। अगर गुरू जी एक जलेबी और दे दें तो उसे भी पूरा हिस्सा मिल जाए।“

अपनी माँ से तो घीसा प्यार करता ही था। पर अपने पालतू पिल्ले के लिए भी उसके मन में प्यार था। गुरू जी की तो घीसा पूजा करता। कड़ी धूप में बैठा वह गुरू जी का इंतजार करता।

अचानक गुरू जी के पेट में दर्द रहने लगा। डाॅक्टर ने उन्हें आपरेशन कराने की सलाह दी। जब गुरू जी ने बच्चों को बताया वह कुछ दिनों तक झूँसी नहीं आ सकेंगी तो घीसा रो पड़ा।

गुरू जी थोड़ी देर यहाँ ठहरिएगा। हम अभी आते हैं। जाइएगा नहीं। गुरू जी से विनती कर, घीसा तेजी से भाग गया। थोड़ी देर बाद नंगे बदन घीसा वापस आया। उसके हाथ में एक बड़ा-सा तरबूज था। तरबूज में एक छोटी-सी फाँक काटी गई थी। उसमें से अंदर का लाल रंग झलक रहा था।

”गुरू जी, यह तरबूज आपके लिए खेत से लाए हैं। लाल है या नहीं इसलिए थोड़ा-सा कटवाकर देखना पड़ा।“ घीसा दौड़ने के कारण हाँफ़ रहा था।

”मेरे लिए क्यों घीसा? यह तरबूज तू खा और अपनी माँ के लिए ले जा।“ गुरू जी ने कहा।

”नहीं गुरू जी, आप तो माँ और भगवान से भी ऊपर हैं। यह तरबूज लाने के लिए पैसे नहीं थे, गुरू जी। नया कुरता देकर आपके लिए यह तरबूज लाए हैं। गर्मी में हम नंगे बदन रह सकते हैं।“ खुशी से घीसा का चेहरा जगमगा रहा था। यह सुनकर गुरू जी की आँखें नम हो गई।

नया कुरता घीसा को बहुत प्यारा था, पर उसके दिल में गुरू जी के लिए उस कुरते से कहीं ज्यादा प्यार था। गुरू जी को तरबूज देकर उसे जो खुशी मिली, उसके मुकाबले नया कुरता खो देने का दुख कुछ नहीं था।

गुरू जी ने घीसा को सीने से चिपटा लिया। दोनों की आँखों से आँसू बह निकले।

प्यारी गिलहरी

ख् तुम जानते होगे कि संसार के सारे देशों में गिलहरियाँ हैं, जो पेड़ों पर दौड़ती हैं और फल-बीज चुनकर खाती हैं। बड़ी सुंदर लगती हैं न। केवल भारत की गिलहरियों की पीठ पर तीन धारियाँ मिलती हैं। ऐसा क्यों? इसके पीछे बड़ी ही रोचक कहानी है। आओ, हम यह कहानी पढ़ें।,




यह कहानी बहुत पुरानी है। उन दिनों लंका में रावण नाम का राजा राज्य करता था। लंका और भारत के बीच में एक गहरा सागर है। अयोध्या के राजा दशरथ के बड़े पुत्र श्री रामचंद्र पिता की आज्ञा से जंगल में वास कर रहे थे। उनके साथ उनका छोटा भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता भी थे।

एक दिन रावण धोखे से सीता जी को अपने साथ लंका ले गया। सीता ने रावण के महल में रहना स्वीकार नहीं किया। वे अशोक वाटिका में पेड़ों की छाया में रहतीं और श्री रामचंद्र का नाम जपती थीं।

सीता को रावण से छुड़ाने के लिए लंका जाना जरूरी था। सागर पर पुल बनाए बिना लंका नहीं पहॅुंचा जा सकता था। सब सोच में पड़ गए, सागर को कैसे पार किया जाए? लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा-

”भ्राताश्री, अगर आप चाहें तो एक बाण चलाकर करोड़ों सागरों का पानी सुखा सकते हैं। आप किस सोच में हैं?“

”नहीं भाई, हम पहले सागर से प्रार्थना करेंगे। हो सकता है सागर राज हमें पार जाने का कोई उपाय बताए। बिना कारण किसी पर अन्याय करना ठीक बात नहीं होती।“ श्री राम ने उत्तर दिया।

प्रार्थना करने पर भी सागर राज नहीं माना। तब श्री रामचंद्र ने अपना धनुष-बाण उठाया। यह देखकर सागर राज डर गया। वह जानता था श्री राम के बाण से सागर का पानी सूख जाएगा। सागर राज ने श्री राम से कहा-

”हे भगवान! आपकी सेना में नल और नील नाम के दो वानर भाई हैं। उन्हें वरदान मिला है कि वे जिस पत्थर को छूएँगे वह सागर पर तैरता रहेगा। बड़े-बड़े पत्थर भी पानी में डालेंगे तो भी वे नहीं डूबेंगे। आप उनकी मदद से सागर पर पुल बनवाइए। इस तरह मेरा भी सम्मान बना रहेगा।“

बस फिर क्या था। नल और नील के साथ सारी वानर सेना सागर में बड़ी-बड़ी शिलाएँ डालने लगी। पत्थर पानी में तैरने लगे। धीरे-धीरे समुद्र पर पुल बनने लगा।

उसी जगह एक पेड़ पर एक छोटी-सी गिलहरी रहती थी। गिलहरी बहुत चंचल थी। एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर फुदकती रहती। कभी वह फल कुतरकर खाती, कभी रेत में लोटती, कभी समुद्र के पानी में नहाती।

गिलहरी ने देखा कि सारे वानर पत्थर उठा-उठाकर समुद्र में डाल रहे हैं। एक वानर को रोक कर गिलहरी ने पूछा-

”वानर भइया, आप लोग किनारे से पत्थर उठाकर पानी में क्यों डाल रहे हैं? सागर मामा का पानी गंदा होगा तो वे नाराज होंगे।“

”नहीं पगली, हम समुद्र का पानी गंदा नहीं कर रहे हैं। हम लोग तो सागर पर पुल बना रहे हैं।“ वानर ने कहा।

”आप पुल क्यों बना रहे हैं एभइया?“ गिलहरी ने पूछा।

”देख गिलहरी, समुद्र के उस पार लंका देश है। लंका में सीता जी कैद हैं। उन्हें छुड़ाने के लिए सागर पर करना होगा। इसीलिए हम पुल बना रहे हैं। हम भी आपके काम में मदद करेंगे।“ गिलहरी बोली।

”अरे रहने दे। तू इतनी छोटी-सी है, पत्थर के नीचे दबकर ख़त्म हो जाएगी। यह काम हमें ही करने दे।“ वानर हॅंस पड़ा।

”छोटे हैं तो क्या हुआ? छोटे भी तो बड़ों की मदद कर सकते हैं। एक-एक बॅंूद से सागर बन सकता है, तो पुल बनाने में हम आपकी मदद क्यों नहीं कर सकते?“ गिलहरी ने कहा।

नन्ही गिलहरी ने वानर के जवाब का इंतजार नहीं किया। उछलती हुई, तेजी-से जाकर सागर के पानी में डुबकी लगा आई। उसका सारा बदन गीला हो गया था। भीगे शरीर के साथ गिलहरी रेत में लोट लगाने लगी। उसके शरीर पर रेत-कण चिपक गए। फुदकती हुई गिलहरी फिर समुद्र में गई और पानी में अपनी रेत झाड़ आई।

गिलहरी बार-बार ऐसा ही करती रही। श्री रामचंद्र गिलहरी के मन की बात समझ गए। अपने शरीर के रेत-कण समुद्र के पानी में झाड़कर, गिलहरी पुल बनाने में मदद कर रही थी।

सागर पर पुल बनकर तैयार हो गया। सारे वानर खुशियाँ मना रहे थे। गिलहरी भी रेत में लोटकर उनकी खुशी में शामिल हो गई। कुछ देर पहले वह सागर में नहाकर लौटी थी। उसके शरीर पर रेत के कण चिपके हुए थे। श्रीरामचंद्र ने स्नेह से गिलहरी को उठा लिया-

”तू छोटी जरूर है, पर तूने एक बड़े काम को पूरा करने में मदद की है, नन्ही गिलहरी। तुझे हमेशा याद रखा जाएगा।“

रामचंद्र जी ने प्यार से गिलहरी की पीठ सहलाई। उनकी उॅंगलियों से गिलहरी की पीठ पर लगी रेत, तीन जगह से झड़कर गिर गई। उसकी पीठ पर तीन धारियाँ-सी बन गई। तब से गिलहरी के शरीर पर तीन धारियाँ बनी दिखाई देती हैं।

गिलहरी के शरीर की ये धारियाँ मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचंद्र के प्यार की निशानी हैं। श्री रामचंद्र ने छोटे-बड़े, उच्च-नीच सबको अपना प्यार दिया। हमें भी किसी को छोटा नहीं समझना चाहिए। सबको अपना प्यार देना चाहिए। छोटे प्राणी भी महान कार्य करने में मदद कर सकते हैं। एक नन्ही-सी गिलहरी ने सागर पर पुल बनाने में मदद करके यह सच साबित कर दिया है।

अधिकार

ख्यह कहानी महात्मा गौतम बुद्ध के बचपन की है। बालक गौतम का हृदय कोमल था। उसमें जीव-जंतुओं के प्रति करूणा थी। उसका चचेरा भाई देवदत्त क्रूर था। उसे जानवरों का शिकार करने में आनंद आता था। एक बार देवदत्त ने हंस पक्षी को मार गिराया और गौतम ने उसकी जान बचाई। देवतत्त कहता है- ”यह मेरा शिकार है। मुझे दे दो।“ गौतम कहता है- ”नहीं ! मैंने इसकी जान बचाई, यह मेरा है।“ देखो कौन जीतता है।,




सुबह का समय था। ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। मगध के राजकुमार सिद्धार्थ राजमहल के बाग में घूम रहे थे। राजकुमार को लोग प्यार से गौतम पुकारते थे। उनके साथ उनका चचेरा भाई देवदत्त भी था। गौतम बहुत दयालु स्वभाव के थे। वह पशु-पक्षियों को प्यार करते, पर देवदत्त कठोर स्वभाव का था। पशु-पक्षियों के शिकार में उसे बड़ा आनंद मिलता।

बाग बहुत संुदर था। तालाब में कमल खिले हुए थे। फूलों पर रंग-बिरंगी तितलियाँ मॅंडरा रही थीं। पेड़ों पर चिड़ियाँ चहचहा रही थीं। राजकुमार गौतम को देखकर बाग के खरगोश और हिरन उनके चारों ओर जमा हो गए। गौतम ने बड़े प्यार से उन्हें हरी-हरी घास खिलाई। उसी बीच देवदत्त ने एक तितली पकड़ उसके पंख काट डाले। गौतम को बहुत दुख हुआ-

”यह क्या देवदत्त, तुमने तितली के पंख क्यों काटे?“

”मैं इसे धागा बाँधकर नचाऊॅंगा। बड़ा मजा आएगा।“ देवदत्त हॅंस रहा था।

”नहीं देवदत्त, यह ठीक बात नहीं है। भगवान ने तितली को पंख उड़ने के लिए दिए हैं। उसके पंख काटकर तुमने अपराध किया है।“ गौतम ने कहा।

”अगर तुम तितली और चिड़ियों के बारे में सोचते रहे तो राजा कैसे बन सकोगे गौतम? तुम खरगोश से खेलो, मैं किसी पक्षी का शिकार करता हूँ।“ हॅंसता हुआ देवदत्त बाग के दूसरी ओर चला गया।

गौतम सोच में डूबे बाग में घूम रहे थे। तभी आकाश में सफ़ेद हंस उड़ते हुए दिखाई दिए। सारे हंस पंक्ति बनाकर उड़ रहे थे। उनकी आवाज समझ पाना संभव नहीं था। ऐसा लग रहा था जैसे वे खुशी के गीत गा रहे हों। गौतम हंसों को प्यार से देख रहे थे। अचानक हंस चीख पड़े।

हंसों की पंक्ति टूट गई थी। अचानक खून से लथपथ एक हंस गौतम के पाँवों के पास आ गिरा। हंस के शरीर में एक बाण लगा हुआ था। घायल हंस कष्ट से कराह रहा था। गौतम को लगा मानो हंस उनसे दया की भीख माँग रहा हो। हंस के कष्ट से गौैतम को बहुत दुख हुआ। वे सोचने लगे-

”कुछ देर पहले यह हंस कितना खुश था। अपने साथियों के साथ गीत गाता, आकाश में उड़ रहा था। एक बाण ने इसे इसके साथियों से अलग कर दिया। यह अन्याय किसने किया?“

गौतम ने बड़ी सावधानी से उसके शरीर से बाण बाहर निकाल दिया। उसके घाव को धोकर साफ किया। प्यार पाकर हंस ने गौतम की गोद में सिर छिपा लिया।

तभी बाग के दूसरी ओर से देवदत्त तेजी से दौड़ता हुआ आया। उसे आता देख, हंस डर से सिहर गया। गौतम के पास आकर देवदत्त ने तेज आवाज में कहा-

”सिद्धार्थ, यह हंस मेरा है। मैंने इसे बाण मारकर गिराया है।“

”नहीं देवदत्त, यह हंस मेरी शरण में आया है। यह हंस मेरा है।“ गौतम ने शांति से जवाब दिया।

”बेकार की बातें मत करो गौतम। मैंने इसका शिकार किया है। हंस मुझे दे दो।“ देवदत्त ने गुस्से से कहा।

”मैं यह हंस तुम्हें नहीं दॅंूगा देवदत्त। इसे मैंने बचाया है। इस हंस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है।“ गौतम अपनी बात पर अटल थे।

गौतम और देवदत्त के बीच बहस छिड़ गई। दोनों ही अपनी बात पर अड़े थे। अंत में देवदत्त ने कहा-

”ठीक है, चलो महाराज के पास। वे ही हमारा न्याय करेंगे।“

दोनों बालक गौतम के पिता महाराज शुद्धोधन के पास पहॅुंचे। देवदत्त बहुत क्रोध में था, पर गौतम शांत थे।

देवदत्त ने महाराज से कहा-

”महाराज, मैंने आकाश में उड़ते इस हंस का शिकार किया है। इस हंस पर मेरा अधिकार है। मुझे मेरा हंस दिलाया जाए।“

महाराज ने गौतम से कहा-

”राजकुमार गौतम, तुम्हारा भाई ठीक कहता है। शिकार किए गए पक्षी पर शिकारी का हक होता है। देवदत्त का हंस उसे दे दो।“

”नहीं महाराज, मारने वाले से बचाने वाला ज्यादा बड़ा होता है। देवदत्त ने इस हंस के प्राण लेने चाहे, पर मैंने इसकी जान बचाई है। अब आप ही बताइए, इस हंस पर किसका अधिकार होना चाहिए?“ गौतम ने कहा।

महाराज सोच में पड़ गए। उन्हें गौतम की बात ठीक लगी। प्राण लेने वाले से जीवन देने वाला, अधिक महान होता है। उन्होंने कहा- ”गौतम ठीक कहता है। इस हंस के प्राण गौतम ने बचाए हैं, इसलिए इस हंस पर गौतम का अधिकार है।“

क्रोधित होकर देवदत्त ने प्रश्न किया- ”अगर हंस मर जाता तो क्या आप यह हंस मुझे दे देते महाराज?“

”हाँ, तब यह हंस तुम्हारा शिकार होता और तुम्हें तुम्हारा हंस जरूर दिया जाता।“ बड़ी शांति से महाराज ने समझाया।

गौतम ने प्यार से हंस को सीने से चिपटा लिया। हंस ने खुश होकर चैन की साँस ली। महाराज ने हंस की प्रसन्नता देखी। अचानक उनके मॅुंह से निकला-भक्षक से रक्षक बड़ा है। अर्थात् मारकर खाने वाले से रक्षा करने वाला महान है।

बाद में राजकुमार गौतम ही महात्मा गौतम बुद्ध ने सब प्राणियों को प्यार करने की सीख दी। विश्व को अहिंसा और शांति का संदेश दिया। गौतम बुद्ध को लोग आदर से भगवान बुद्ध भी कहते हैं। वे सचमुच महान थे।

अनोखा रिश्ता

मोहन को अपने बाबा से बहुत प्यार है। घर में असके माता-पिता भी हैं, पर मोहन को अपने बाबा के साथ रहना अच्छा लगता है। बाबा मोहन को कहानियाँ सुनाते हैं, उसके साथ गाँव घूमने जाते हैं और कभी भूले से भी उसे डांटते नहीं।


आज बाबा अपने पोते मोहन के लिए टोकरा भर आम लाए हैं। आम देखते ही मोहन खुश हो गया। बाबा ने आम बाल्टी में डालकर धोए। उसके बाद दोनों ने जी भरकर मीठे-मीठे आम खाए।

मोहन ने बाबा से कहा, ”बाबा, अगर हमारे घर में एक आम का पेड़ होता तो कितना अच्छा होता! जब जी चाहता, आम तोड़कर खाते।“

”हाँ, मोहन बेटा, आम का पेड़ फल के अलावा और भी बहुत-सी चीजें हमें देता है।“

”आम का पेड़ और कौन-सी चीजें देता है, बाबा?“

”देखो बेटा, आम का पेड़ जब बड़ा हो जाता है तो ठंडी छाया देता है। आम की पत्तियों से बंदनवार बनाई जाती है।“

”रामू भैया की शादी में इसीलिए उनके घर में बंदनवार और पानी के कलश पर आम की पत्तियाँ लगाई गई थीं!“

”अरे तुम भूल गए, आम की पत्तियों से तुम पीपनी बनाकर बाजा भी तो बजाते हो।“ बाबा ने हॅंसते हुए कहा।

”आम का पेड़ सच में बहुत अच्छा होता है, बाबा। हम अपने घर के आँगन में आम का पेड़ ज़रूर लगाएंगे।“

”ठीक है। मैं कल ही तुम्हारे लिए आम का पौधा ले आऊॅंगा।“

अगले दिन बाबा सुबह-सुबह आम का पौधा ले आए। बाहर के दरवाजे से ही आवाज दी,

”मोहन, तुम्हारे लिए आम का पौधा ले आया हूँ। जब यह पौधा पेड़ बन जाएगा तो इस पर तोते, कोयल, मैना और न जाने कितने तरह के पक्षी आया करेंगे।“

”वाह! तब तो बड़ा मजा आएगा। कोयल की आवाज कितनी मीठी होती है!“

”हाँ, मोहन, पेड़ इंसान और पक्षियों के सबसे अच्छे दोस्त होते है। पंछी तो पेड़ों पर ही बसेरा करते हैं।“

”बाबा, पेड़ तो बात नहीं करते, फिर वे हमारे दोस्त कैसे बन सकते हैं?“

”देखो बेटा, जिस तरह दोस्त तुम्हारी मद्द करते हैं, उसी तरह बिना तुमसे बात किए पेड़ भी तुम्हारी मद्द करते हैं।“

”वह कैसे, बाबा?“

”यह बात ठीक से समझ लो। पेड़ वातावरण से जहरीली कार्बन डाईआक्साइड गैस लेते हैं और हमें साफ़ हवा यानी आक्सीजन देते हैं। आक्सीजन न हो तो हम सांस नहीं ले सकते, यानी जिंदा ही नहीं रह सकते।“

”तब तो पेड़ बहुत अच्छे होते हैं। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती। फिर भी लोग पेड़ों को काटते हैं, भला क्यों?“ मोहन ने भोलेपन से पूछा।

”पैसों के लालच में। वे नहीं जानते कि पेड़ों को काटने से हवा में जहरीली गैस बढ़ती जाती है।“

”मैं समझ गया, बाबा। पेड़ हमारे सबसे पक्के दोस्त हैं।“

”ये लो, लगा दिया आम का पोधा,“ बाबा ने इतना कहते हुए पौधे के आसपास थोड़ा पानी डाला।

”बाबा, मैं इस पौधे को रोज पानी दॅंूगा। जब इसमें आम लगेंगे तो हम दोनों जी भरकर खाएंगे।“

”मेरे बच्चे, हो सकता है, तेरा बाबा आम के फल न खा सके, पर तुझे जरूर मीठे आम मिलेंगे।“

”क्यों बाबा, आप आम क्यों नहीं खाएंगे?“

”अरे, तेरा बाबा बूढ़ा जो हो गया है। पर मेरी सौगात तुझे जरूर मिलती रहेगी।“

”नहीं, बाबा। आप आम जरूर खाएंगे।“ बाबा ने प्यार से मोहन का सिर सहलाकर उसे आशीर्वाद दिया,

”भगवान तुझे खुश रखे। इस पेड़ को अपने बाबा की तरह ही प्यार करना, मोहन!“

समय बीतता गया। मोहन रोज आम के पौधे को पानी देता। पौधा धीरे-धीरे पेड़ का रूप लेकर बड़ा होने लगा। उसके हरे-हरे पत्ते सबको अच्छे लगते। कुछ समय बाद आम के पेड़ में बौर आ गया। कोयल आकर आम के पेड़ पर ‘कू-हू’ ‘कू-हू’ गीत गाने लगी। और भी कई प्रकार के पक्षियों का पेड़ पर जमघट लगा रहता। मोहन बहुत खुश था, पर तभी भगवान ने उसके बाबा को अपने पास बुला लिया।

बाबा की मौत पर मोहन बहुत रोया। तभी उसे याद आया, बाबा ने कहा था ‘आम के इस पेड़ को अपने बाबा की तरह ही प्यार करना!’

मोहन अब आम के पेड़ के नीचे बैठकर पाठ याद करता। उसे लगता यह आम का पेड़ नहीं, उसके सिर पर बाबा का साया है। मोहन जब भी बाबा के लगाए पेड़ के आम खाता, उसे बाबा बहुत याद आते। मोहन की माँ कहती, ”बाबा मोहन को आम खाते देखकर खुश होते होंगे।“

मोहन के पिता को एक परेशानी थी। आम में जब फल लगते, बाहर से बच्चे पत्थर मारकर आम तोड़ने की कोशिश करते। एक दिन घर की खिड़की का शीशा टूट गया। कुछ दिन बाद मोहन की माँ का माथा पत्थर लगने से फट गया। रोज-रोज की इन घटनाओं से तंग आकर मोहन के पिता ने आम का पेड़ कटवाने का निश्चय कर लिया। माँ ने भी कहा, ”आम की लकड़ी से घर की कई चीजें बन जाएंगी।“

एक दिन पेड़ काटने वाले कुल्हाड़ी लेकर आ गए। मोहन ने पेड़ काटने से मना किया, ”मैं इस पेड़ को नहीं काटने दॅंूगा। इसे बाबा ने लगाया था।“

मोहन के पिता ने बहुत समझाया कि वह मोहन को बाजार से आम ला देंगे। पेड़ की वजह से खिड़की-दरवाजे के शीशे टूटते हैं। आम तोड़ने के लिए फेंके गए पत्थर से तुम्हारा सिर भी तो एक बार फट चुका है। भूल गए क्या? तुम्हारी माँ का माथा तो अभी उसी दिन फटा है।

मोहन भागकर पेड़ के तने से लिपट गया, और रोते हुए बोला, ”पिताजी, यह आम का पेड़ बाबा की तरह हमें प्यार करता है। इसे मत कटवाओ।“

पिता हॅंस पड़े। भला बेजान पेड़ मोहन के बाबा की तरह प्यार कैसे कर सकता है?

मोहन कहता गया, ”जब पेड़ की डालियाँ हिलती हैं तो मुझे लगता है जैसे बाबा मेरा सिर सहला रहे हैं। पेड़ की चिड़ियाँ, बाबा की तरह मुझसे बातें करती हैं।“

माँ ने भी मोहन को समझाना चाहा, ”देखो बेटा, ये बेकार की बातें हैं। तुम पेड़ से अलग हो जाओ।“

”नहीं, माँ। यह पेड़ हमारा दोस्त है। सारी जहरीली गैस लेकर यह हमें साफ़ हवा देता है। ठंडी छाया और मीठे फल देता है। बदले में हमसे कुछ भी नहीं लेता।“ मोहन ने पेड़ के तने को प्यार से सहलाया और राते-रोते हिचकियाँ लेने लगा।

माँ सोचने लगी - मोहन कहता तो ठीक है। ये पेड़ तो बस हमें देते ही हैं, लेते कुछ नहीं। ये दाता हैं।

फिर क्यों न मोहन की बात मान ली जाए?

तभी पड़ोस की गंगा ताई आई। उनकी बेटी की शादी में आम के पत्तों से बंदनवार बनानी थी। उन्हें आम के पत्ते चाहिए थे।

मोहन ने माँ से कहा, ”देखो माँ, आम के पेड़ की हर चीज काम आती है। लकड़ी से मेज-कुर्सी बनती है, पत्ते खुशी के मोकों पर सजाए जाते हैं। साफ हवा और ठंडी छाया भी हमें आम ही देता है।“

”तुम ठीक कहते हो, मोहन! अब मैं आम का पेड़ नहीं कटने दूंगी। साथ ही, हम अमरूद और लीची के पेड़ भी आँगन में लगवाएंगे।“

”हाँ, बेटा, हम गलती पर थे। पेड़ सचमुच हमारे दोस्त हैं। हमें पेड़ों से प्यार करना चाहिए।“ अब पिता ने भी मोहन की बात मान ली। आम का पेड़ कटवाने की बात सोचने पर उन्हें पछतावा भी हुआ। वैसे, पेड़ कटवाने की बात सोचकर उन्हें भी दुख हुआ था, पर रोज-रोज की घटनाओं से वह तंग आ गए थे।

”हमारी किताब में लिखा है कि पेड़ पानी बरसाने और बाढ़ रोकने में भी हमारी मदद करते हैं। पेड़ काटना ठीक नहीं है।“ माता-पिता को मानते देख मोहन बहुत खुश था।

”किताब में ठीक लिखा हुआ है, मोहन! अब हम पेड़ काटने की ग़लती नहीं करेंगे। पेड़ों से प्यार का रिश्ता जोड़ना ही ठीक है।“

”तभी तो मैं आम के पेड़ को अपना बाबा मानता हूँ।“

”ठीक कहते हो, मोहन! तुम्हारे बाबा तुम्हें यह पेड़ सौगात में देकर गए हैं। इसके मीठे फलों मंे जरूर तुम्हारे बाबा का प्यार छुपा है।“

”मेरी अच्छी माँ, मेरे अच्छे पिताजी!“ मोहन ने अपनी माँ का हाथ चूमा और आंसू पोंछकर खेलने भाग गया। आम के पेड़ से कोयल ने भी खुशी का गीत गाया-कूहू..........कूहू....।

Friday, December 4, 2009

फैसला

पिछले दो दिनों से अपना कमरा बंद किए पड़ी नीलांजना,  अचानक दरवाजा खोल, बाहर आ खड़ी हुई थी-


”बाबूजी, मैंने फ़ैसला कर लिया है, मैं काजल भाभी का साथ दूंगी। अदालत में उनके पक्ष में गवाही दूंगी।“

नीलांजना की घोषणा से पूरे घर में सन्नाटा खिंच गया । बड़े भइया की मृत्यु पर मातमपुर्सी करने आए रिश्तेदारों पर बिजली-सी गिरी थी। अम्मा कपाल पर हाथ मार विलाप कर उठी । बाबूजी की आँखों से अंगारे बरस रहे थे-

”ये बात मुंह से निकालने के पहले तू मर क्यों न गई? सगे भाई की हत्यारिन का साथ देगी!  इसी दिन के लिए बड़ा किया था तुझे?“

”न्याय और अन्याय की समझ देने के लिए आपकी आभारी हूँ बाबूजी!  कुछ देर ठंडे दिमाग से सोच कर देखिए,  उनकी जगह आपकी बेटी होती तब भी क्या आप ऐसा ही सोचते?“

”बेशर्म कहीं की, बाप के सामने ऐसी बातें करते तेरी जीभ नहीं जलती! दूर हो जा मेरी आँखों के सामने से वर्ना..........“

आवेश में बाबूजी हाँफने लगे थे। रिश्ते के चाचाजी ने उन्हें सम्हाला था। सुमित्रा ताई ने नीलांजना को हाथ से पकड़, जबरन पीछे खींच,  बाबूजी के सामने से हटा दिया था।

”देखती नहीं माँ-बाप का क्या हाल है? जवान बेटे की मौत का सदमा लगा है उन्हें।“

”वो बेटा ज़िंदा ही कब था ताई? तुम्हीं तो कहा करती थी,  काश सुरेश हमेशा को सो जाता..“ नीलांजना की आखें भर आई थीं।

”वो बात ठीक है नीलू,  पर माँ-बाप के लिए संतान कैसी भी हो, ममता तो उमड़ेगी ही। ऐसी बातें करके उनका दिल दुखाने से क्या फ़ायदा, बेटी?“

”काजल भाभी भी तो किसी की बेटी हैं, ताई.........“

”अरे उस अभागिन के माँ-बाप होते तो क्या इस नरक में उसे झोंकते? तू क्या समझती है मुझे उस पर तरस नहीं आ रहा, पर इस वक्त कुछ कहना ठीक नहीं।“

”ठीक क्यों नहीं है ताई? पिछले दो दिनों से भाभी पुलिस कस्टडी में हैं,  उनके साथ न जाने क्या हो रहा होगा और हम सब इस साज़िश में शामिल हैं।“ नीलांजना सचमुच रो पड़ी थी।

”मैं तेरी बात समझती हूँ, बिटिया। उस अभागिन के अपने चाचा भी तो उसे हत्यारिन कह,  अपना पीछा छुड़ा गए। न जाने क्या-क्या सहना है उसकी किस्मत में। भगवान दुश्मन को भी ऐसी तकदीर न दे।“ ताई ने आँचल से आँसू पोंछ डाले थे।

कुर्सी पर निढाल पड़ी नीलांजना की आँखों से आँसू बह रहे थे। सारी बातें बार-बार याद आ रही थीं.........

बड़े भइया की शादी के बाद से उनके कामों का दायित्व काजल भाभी को सौंप,  अम्मा निश्चिन्त हो गई थीं। पति को नहलाने-धुलाने से लेकर कपड़े पहनाना, खाना खिलाना पत्नी का ही कर्तव्य है, ये बात अम्मा ने उन्हें अच्छी तरह समझा दी थी। अम्मा उन्हें दो बार स्वयंसिद्धा पिक्चर दिखा लाई थीं। बार-बार समझातीं,

”पत्नी के प्यार और त्याग से पति ठीक हो सकता है। अब सुरेश को तुझे ही सम्हालना है, बहू।“ भोली-भाली काजल भाभी मुंह नीचा किए निःशब्द अम्मा की सीख सुनती रहती थीं।

मातृ-पितृ-विहीन काजल ने चाचा के घर, नौकरानी की तरह काम कर दिन काटे थे। उस पर भी चाची को उसकी दो रोटियाँ भारी थीं। सबके खा-पी चुकने के बाद, बचा-खुचा उसके सामने फेंक दिया जाता था। माँ-पिता एक साथ रेल-दुर्घटना में उसे अनाथ बना,  चाचा के सहारे छोड़ चले गए थे। तब वह सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। बस वहीं, मेधावी काजल की शिक्षा को विराम लग गया था। चाचा के बच्चों को स्कूल जाता देख, काजल का मन मचल उठता था,  पर भगवान ने उसे असीम धैर्य दिया था। अपनी स्थिति उसके सामने स्पष्ट थी। चचेरी बहन की पुस्तकों की झलक देख पाने के लिए काजल को उसकी हज़ार मिन्नतें करनी पड़ती थीं। अगर चाची की निगाह किताबों में आँख गड़ाए काजल पर पड़ती तो उसकी शामत आ जाती।

उसी काजल के लिए चाचा ने उपयुक्त घर-वर खोज,  मृत भाई के प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण कर,  जग की वाहवाही पाई थी। सब कुछ जानते-समझते भी,  जन्म से मानसिक रूप से विक्षिप्त भइया के साथ उन्होंने काजल को बाँध दिया था।

आँखों में कितने सपने सॅंजोए काजल इस घर में आई थी। चाचा के प्रति वह कितनी कृतज्ञ थी, उनकी कृपा से उसे इतना अच्छा घर-वर मिल सका था। आश्चर्य इसी बात का था कि उस दिन बड़े भइया असामान्य रूप में शान्त रहे। उनको शांत देख, नीलांजना को लगा था शायद अम्मा-बाबूजी के जिन शुभचिन्तकों ने उन्हें समझाया था कि शादी के बाद भइया ठीक हो जाएँगे, वे सचमुच अनुभवी थे।

भइया की शादी का सबसे ज्यादा विरोध नीलांजना ने किया था। एम.ए. फाइनल में पढ़ रही नीलांजना, न्याय-अन्याय का अर्थ अच्छी तरह समझती थी। भइया का अभिशाप पूरे घर पर मॅंडराता था। बड़े भइया की जन्मजात विक्षिप्तता का कलंक झेलती अम्मा अपने आप में सिमट कर रह गई थीं। दादी हर समय बाबूजी को पट्टी पढ़ाती, उन्हें सुनाती रहती थीं,

”पगले को जन्म दिया है, ज़रूर इसके ख़ानदान में कोई पगला रहा होगा। तू ही समझ मनोहर बेटा, हमारे ख़ानदान से न जाने किस जन्म का बदला लिया इसके बाप ने। हमें धोखे में रख, शादी कर दी अपनी लाड़ली की। अब इस पाप का बोझा ढोने को हम रह गए हैं।“

अम्मा बताती हैं,  पोता जन्मा है,  सुनकर, वही दादी खुशी के मारे अम्मा की बलैयाँ लेते नहीं थकती थीं। भइया को सीने से चिपटाए, दादी अपनी किस्मत सराहती थीं। बचपन में बड़े भइया की अजीबोगरीब हरकतें, उनका असामान्य क्रोध,  सबके मनोरंजन का कारण था। अम्मा के शब्दकोश में मानसिक विक्षिप्तता जैसा कोई शब्द ही नहीं था। जैसे-जैसे भइया बड़े होते गए उनकी असामान्यता स्पष्ट होती गई। अगर भइया बुद्धिहीन होते तो भी बात सही जा सकती थी,  पर उन्हें गुस्से के ऐसे दौरे पड़ते कि घर-भर काँप जाता। हाथ में आई कोई भी चीज किसी के सिर दे मारना उनके लिए सामान्य बात थी। एक बात और, जब उन्हें ऐसे दौरे पड़ते तो चुन-चुन कर ऐसी अभद्र-अश्लील गालियाँ देते,  जिन्हें अच्छे घरों में सुनना भी पाप माना जाता। जैसे-जैसे वह जवान होते गए, गालियों के साथ अनकी लड़कियों की चाहत भी बढ़ती गई। डाँक्टर का कहना था, इस रोग में सेक्स के प्रति जबरदस्त आकर्षण होता है। शायद उनकी शादी कर देने में, बाबूजी के मन में यह बात भी रही हो।

बड़े बेटे की असमर्थता और विक्षिप्तता का ज़हर अम्मा जीवन-भर पीती रही थीं। ऐसे बेटे के साथ, कोख से और बच्चों को जन्म देने वाली अम्मा की हिम्मत पर नीलांजना को आश्चर्य होता है। अगर वह भी भइया जैसी ही होती तो? उस समय भी इस कल्पना से नीलांजना को कॅंपकॅंपी-सी आ गई। आठ बच्चों में से बस भइया और नीलांजना ही जीवित बचे थे। विधाता के इस क्रूर मजाक को अम्मा कभी नही भूल पातीं,  काश उनका एक भी बेटा जीवित बच पाता जो दादी का सपना पूरा करता। दादी की बड़ी साध थी,  उनकी अर्थी को उनका पोता कंधा दे। उन्हें विश्वास था उसके कंधे चढ़ वह सीधे स्वर्ग जाएँगी,  पर उनकी मृत्यु के समय भी स्वर्ग जाती दादी को,  बड़े भइया ने चुन-चुन कर कोसा था। पता नहीं दादी उन शब्दों पर सवार कहाँ पहुँची होंगी!

बचपन से भइया का चीखना-चिल्लाना सुनती नीलांजना बड़ी हुई थी। मुहल्ले-पड़ोस के लोगों के लिए भइया का अनर्गल प्रलाप मनोरंजन का साधन था। जिन एकाध दिनों घर में शांति रहती, पड़ोसी बालिका नीलांजना से कोंच-कोंच कर पूछते,

”क्या बात है नीलू,  आज तुम्हारे घर में बड़ा सन्नाटा है? क्या सब लोग कहीं बाहर गए हैं?“

”नहीं तो, अम्मा खाना बना रही हैं और भइया सो रहे हैं।“ प्रायः दौरों के बाद भइया दो-एक दिन गहरी नींद सोया करते थे।

”अच्छा-अच्छा,  शायद उन्हें डाँक्टर ने सोने की सुई दी होगी?“

”सुई क्यों देंगे,  भइया तो अपने आप सोए हैं।“ भोली नीलांजना उनके अधरों की व्यंग्य-भरी मुस्कान का अर्थ नहीं समझ पाती थी।

”काश वह हमेशा के लिए सो जाए, इस नन्हीं जान को तो मुक्ति मिलती। उसका कलंक इसे भी खा जाएगा।“ मुहल्ले की सुमित्रा ताई बचपन से नीलांजना को बहुत प्यार करती थीं,  पर भइया के लिए कही वैसी बातों पर नीलांजना मचल जाती,

”ऊंहूँ, तुम बहुत खराब हो, ताई, भइया सोते रहेंगे तो हम किससे बात करेंगे?“ कभी-कभी भइया पर जब दौरे नहीं पड़ते, वे नीलांजना के साथ सचमुच ठीक बात करते थे।

”अरे मैं कोई उसकी दुश्मन थोड़ी हूँ, बेटी, मैं तो तेरे भले की सोचती थी............“

ताई की उस बात का अर्थ अब नीलांजना अच्छी तरह समझती है। भइया के कारण, पूरे परिवार ने अपने को घर की चहारदीवारी के अन्दर कैद कर लिया था। ऐसे बेटे को लेकर किसी रिश्तेदारी में जाना भी संभव नहीं था। भइया के कारण नीलांजना ने भी कम अपमान नहीं झेला था। साथ की सहेलियाँ जब भी उससे पराजित होतीं तो ‘पगले की बहन पगली’ कहकर उससे अपनी पराजय का पूरा मूल्य चुका लेतीं। आँखों से आँसू ढलकाती नीलांजना भी अम्मा की गोदी में सिर छिपा उन्हें उलाहना दे डालती,

”तुम बहुत गन्दी हो अम्मा,  इत्ता गन्दा भइया क्यों लाई? सबके भाई कित्ते अच्छे हैं। मेरा भाई गंदा है, वो पागल हैं.....“

”छिः बेटी, भाई को ऐसे नहीं कहा जाता। भगवान से प्रार्थना कर, तेरा भाई ठीक हो जाए,  फिर वह तुझे खूब प्यार करेगा, नीलू।“

अम्मा की उन बातों पर नीलांजना को कितना विश्वास था! भगवान से उसने कितनी विनती की कि वो उसके भइया को ठीक कर दें। उसके भइया को कोई पागल न कहे। पर भगवान ने उसकी कहाँ सुनी थी!

जैसे-जैसे नीलांजना बड़ी होती गई, भाई की विक्षिप्तता उसे विचलित करती गई। बचपन में भाई जब चीखता-चिल्लाता, वह कौतुक से उस दृश्य को देखती। कभी-कभी बाबूजी मोटा डंडा उठा उनकी पिटाई भी कर देते, उस समय उसका बाल-हृदय भाई के लिए करूणा से रो उठता। एक बार उसने बाबूजी के हाथ में अपने दाँत भी गड़ा दिए थे। बदले में बाबूजी का करारा थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा था।

समझदार होती नीलांजना के सामने स्थिति स्पष्ट होती गई थी। उसका परिवार औरों से अलग क्यों है? असामान्य भाई के लिए उसके मन में करूणा के साथ आक्रोश भी उभरता था। भइया के सामान्य रहने का अर्थ गाली-गलौज बन्द रहना होता था। किसी के प्रति उनके मन में प्यार या ममता जैसे भाव नहीं थे। युवा होती नीलांजना को भाई एक खतरनाक जीव-सा लगने लगा था। वह प्रायः उसके सामने पड़ने से कतराती।

एक दिन सुमित्रा ताई ने अम्मा से कहा था,
”बहू, नीलू को सुरेश के पास अकेले मत छोड़ना। तू तो सब समझती है। सुरेश में कोई समझदारी तो है नहीं....................“

उस दिन से अम्मा भी नीलांजना के प्रति विशेष रूप से सतर्क रहने लगी थीं। स्वयं नीलांजना कितना डर गई थी!

एक बात के लिए नीलांजना अम्मा-बाबूजी और दादी को कभी क्षमा नहीं कर सकती, उन्होंने भइया को मेंटल हाँस्पिटल में सबके लाख समझाने के बावजूद भर्ती क्यों नहीं कराया। शहर के डाँक्टर की दवा से उन्हें नींद भले ही आ जाती, पर उनकी विक्षिप्तता में कोई अन्तर नहीं आता। डाँक्टर का कहना था, भइया के मस्तिष्क की बनावट में जन्मजात जो कमी है, उसकी क्षति-पूर्ति संभव नहीं।

नीलांजना बाबूजी से बार-बार भइया को किसी मेंटल हाँस्पिटल में भर्ती कराने की विनय करती एपर अस्पताल मे भेजने के नाम पर ही अम्मा अन्न-जल त्याग, रोना शुरू कर देतीं। स्वयं बाबूजी की भी यही दलील थी कि लड़के को पागलखाने में भर्ती कराने से परिवार का सम्मान मिट्टी में मिल जाएगा। लोग क्या कहेंगे, मुख्तार साहब का बेटा पागलखाने में है। लड़की की शादी मुश्किल हो जाएगी। पता नहीं बाबूजी ये कैसे सोच पाते थे कि भइया के घर में रहने से नीलांजना की शादी आसान हो जाती। व्यंग्य की एक मुस्कान नीलांजना के ओठों पर तैर आई थी।

घर के असामान्य वातावरण, भइया के चीखते-चिल्लाने का आक्रोश नीलिमा के काँलेज की डिबेटों में उतर आता। विरोधी पक्ष की बात इस तरह काटती कि उनसे कोई जवाब ही न बन पाता।

ऊपर से बेहद सामान्य और शान्त दिखने वाली नीलांजना के अन्तर में अन्धड़-सा चलता रहता। बाबूजी जहाँ भी उसकी शादी के लिए जाते भइया का नाम वहाँ पहले पहुँच जाता। नीलांजना हमेशा सोचती, अम्मा के उन छह बच्चों की जगह भइया क्यों न चले गए! काश वह चले जाएँ......‘कभी-कभी नीलांजना बेवजह लोगों से उलझ पड़ती। सामान्य कही गई बातों में छिपे अर्थ पढ़ने की कोशिश करती। सबसे ज्यादा गुस्सा उसे भइया पर आता,  स्वयं असामान्य होते हुए भी वह तो सामान्य जीवन जी रहे थे और सामान्य नीलांजना,  असामान्य जीवन जीने को विवश थी। अनजाने ही नीलांजना अपने आप में कई काम्प्लेक्स डेवलप कर बैठी थी।’

अगर कभी किसी लड़के ने नीलांजना की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया,  नीलांजना ने उसे झिड़क दिया। दोस्तों में सिर्फ उषा ही उसके निकट आ सकी थी। अपने मन की बात उषा से कह, नीलांजना हल्की हो जाती थी। बी.ए. के बाद नीलांजना ने एम.ए. में दाखिला ले लिया और उषा उसी शहर में नौकरी कर रही थी। उषा के पिता के स्वर्गवास के बाद उसके बड़े भाई ने घर को सम्हाला था। अब उषा भाई के हाथ मजबूत करने को दृढ़-प्रतिज्ञ थी। अपनी शादी की बात उसने भुला दी थी।

”जब तक बिना दहेज कोई शादी का प्रस्ताव नहीं आता, मैं विवाह नहीं करूँगी। भइया ने इस लायक बनाया यही क्या कम है नीलू,  अब उन पर और बोझ डालना ठीक नहीं है न?“ कितनी बार नीलांजना सोचती, काश उसके भइया भी उषा के भाई जैसे होते!

दृढ़ निश्चय के साथ आँसू पोंछ, नीलांजना उठ खड़ी हुई थी। इस समय उषा की उसे सख्त जरूरत महसूस हो रही थी।

दरवाजा खोलते ही, उड़े-उड़े चेहरे,  अस्त-व्यस्त वेशभूषा के साथ खड़ी नीलांजना को देख, उषा चौंक उठी थी-

”अरे नीलू...... क्या हुआ, तबियत तो ठीक है?“

”सब बताती हूँ,  पहले अन्दर तो आने दो।“

नीलांजना को अन्दर आने की राह दे, उषा ने दरवाजा बन्द कर दिया था।

”एक कप चाय मिलेगी,  उषा?“

”अभी लाई...........“

नीलांजना को चाय थमाती उषा की सवाल पूछती निगाहें उसके मुख पर जमी हुई थीं। एक घूँट चाय गले से नीचे उतार नीलांजना ने उषा को जवाब दिया था,

”भइया नहीं रहे उषा!“

”क्या ......कब........कैसे?“

”बता पाना उतना आसान नहीं,  तुझे मेरी मदद करनी होगी, उषा।“

”तू बता तो सही, क्या हुआ, नीलू?“

”काजल भाभी को पुलिस ले गई है।“

”क्या..........आ..........“

”हाँ उषा,  भइया के बलात्कार से बचने के लिए उसने बाबूजी के डंडे से उनके सिर पर वार किया और भइया...........“

”हे भगवान,  ये क्या किया भाभी ने!“

”वही,  जो उन्हें बहुत पहले करना चाहिए था।“

”ये तू क्या कह रही है नीलू,  होश में तो है?“

”पूरे होश में तो अब आई हूँ। पिछले दो दिनों से जो भी संशय थे,  सब छंट गए हैं, उषा। काजल भाभी को मुक्ति मिलनी ही चाहिए।“

”तेरे भाई की उन्होंने हत्या की है और तू.........?“

”हाँ उषा, उन्होंने हत्या नहीं की, अपनी असहनीय यातना का अन्त किया है। बलात्कार के विरूद्ध रक्षा का अधिकार स्त्री को है न?“

”छिः नीलू, तू ये कैसी भाषा बोल रही है! पति अपनी पत्नी के साथ बलात्कार.....छिः छिः!“ उषा का मुंह विकृत हो उठा था।

”बलात्कार का मतलब जानती है न, उषा? विवाह की प्रथम रात्रि काजल भाभी की दहशत-भरी चीखें सुनाई दी थीं। घर के सारे प्राणी जगते हुए भी सोने का बहाना किए पड़े रहे। मैंने उठने की कोशिश की तो अम्मा ने जबरन रोक दिया था,  ऊपर से डाँट लगाई थी,
‘नए ब्याहलों के कमरे में तेरा क्या काम! खबरदार जो वहाँ गई।’“

”चाची ने हॅंसते हुए कहा था, ‘अरे भोली लड़की है, पहले-पहले ऐसा ही होता है बेटी,
तू सो जा।’“

”तभी काजल भाभी हाँफती दौड़ी आई थीं,  साँस घोंकनी-सी चल रही थी। साड़ी का आँचल पीछे घिसटता आ रहा था-

‘मुझे बचा लीजिए, मैं वहाँ नहीं जाऊंगी.... अम्मा जी, मुझे बचा लीजिए।’“

”भाभी के पीछे दहाड़ते आए भइया ने उन्हें दबोच लिया था। उनकी पकड़ में पंख- कटी गौरैया-सी भाभी छटपटा रही थीं। मैंने भाभी को बचाना चाहा तो अम्मा न हाथ पकड़ खींच लिया था।“

”सुबह भाभी के पूरे शरीर में पड़ी खरोचें, टूटी चूड़ियों से बने जख्म-तब मैंने वैसा ही समझा था, उषा, पर उसके बाद वे जख्म कभी नहीं भरे थे। हाँ भाभी ने उन्हें अपनी नियति मान स्वीकार कर लिया था। वैसे भी वह जा भी कहाँ सकती थी! उनके लिए तो सारे दरवाजे बन्द थे।“

”भइया की शादी क्यों की गई, नीलू?“ उषा सिहर उठी थी।

”अम्मा-बाबूजी को उनके कुछ शुभचिन्तकों ने सलाह जो दी थी कि भइया शादी के बाद ठीक हो सकते है। उन्होंने तो अनगिनत उदाहरण भी दे डाले थे। तू तो जानती है उषा,  जिस देश में लड़कियाँ तीस-चालीस रूपयों में बेची जा सकती हैं, वहाँ एक एक्सपेरिमेंट के लिए एक जीवन बलि चढ़ गया।“

”अफ़सोस यही है कि इस त्रासदी की साज़िश में मैं भी सहभागी हूँ। अपना विरोधी स्वर ऊंचा क्यों न उठा सकी! काश भाभी की शादी एक मजदूर से हो जाती तो वह कितनी सुखी होतीं!“

”उनके चाचा तेरे भइया की दिमागी हालत जानते थे, नीलू?“

”बहुत अच्छी तरह। उन्होंने अनाथ भाई की बेटी के लिए घर और वर दोनों दे दिए। धन्य हैं ऐसे चाचा। ऐसे ही धर्मात्मा लड़की को कोठे पर न भेज,  शादी का लाइसेंस दिला,  उस पर बलात्कार की खुली छूट देते हैं।“

”धिक्कार है ऐसे चाचा पर! मुझे मिल जाए तो जान से मार डालूँ, नीच-कमीना!“ उषा उत्तेजित हो उठी थी।

”कभी तो ऐसा लगता है उषा ये सारी दुनिया बलात्कारियों से भरी पड़ी है। शराफ़त के मुखौटे लगाए, ये समाज में खुले घूमते हैं,  जहाँ मौका मिला नहीं कि मुखौटा उतार फेंकते हैं। तू ही सोच, अम्मा को आठ बच्चों की माँ बनाने में क्या बाबूजी ने उनकी खुशी-नाखुशी देखी होगी? न जाने कितनी बार उन्हें जबरन वो सब कुछ झेलना पड़ा होगा। एक अम्मा ही क्यों,  घर-घर की यही कहानी है। औरत दिन-भर घर की चक्की में पिस चूर-चूर हो जाए,  पर पति की इच्छा के आगे उसे समर्पण करना ही पड़ता है। इच्छा-विरूद्ध जबरदस्ती क्या बलात्कार नहीं है, उषा?“नीलांजना की आँखें जल उठी थीं।

”सच नीलू,  तेरी बातों से तो यही लगता है,  कभी अपने घरवाले भी बलात्कार की साज़िश में शामिल होते हैं।“

”सामूहिक बलात्कार में असहनीय शारीरिक-मानसिक कष्ट होता है,  पर जब पूरा परिवार ही अपनी साज़िश के तहत किसी लड़की पर बलात्कार की परमीशन दे दे, तब उस पीड़ा को क्या नाम देगी, उषा? काजल भाभी के साथ वही हुआ है।“

”उस दिन की बात बताएगी नीलू,  जब काजल भाभी ने वो साहसी निर्णय लिया था?“

”पता नहीं भाभी का यह सोचा-समझा निर्णय था या सब कुछ अचानक घट गया। सच तो ये है,  कई बार मेरे दिल में भी भइया को ख़त्म करने की बात आई थी,  पर उस ख्याल को हमेशा जबरन परे कर दिया। शायद भाभी के मन में भी दुविधा रहती होगी।“

”उस दिन भइया को खाना खिलाने गई भाभी को भइया ने अपनी फौलादी बाँहों में जकड़ उनके शरीर को बुरी तरह दाँतों से काटना शुरू कर दिया था। भाभी का प्रतिरोध उनकी शक्ति के सामने ठहर नहीं सकता था। शायद पिछले दो-तीन दिनों से भइया के आक्रमणों से घबराकर, भाभी रात में बाहर से उनका कमरा बन्द कर, स्वयं बरामदे में सो जाती थीं। उस दिन शायद भइया उनसे पूरा बदला ले रहे थे। रातों में भइया की गालियों की बौछार सब सुनते थे-“

”‘कहाँ भाग गई स्साल्ली इधर आ। खोल मेरा कमरा।’“

”काजल भाभी के शरीर की चाहत में,  वह जो कुछ कहते,  बता पाना कठिन है,  उषा। अम्मा ने भाभी को उनके कमरे में सोने को जब विवश करना चाहा तो मैं झल्ला पड़ी थी-“

”‘अम्मा,  तुम लाख चाहो, भइया को भाभी ठीक नहीं कर सकतीं। पिक्चरों में दिखाई कहानियाँ हमेशा सच नहीं होतीं,     समझी!’ अच्छा हो हम लोग उन्हें अकेला छोड़ दें। वह भइया की भलाई के लिए भी तो उन्हें अपने से अलग रख सकती हैं न?“

”हाँ, उस दिन काजल भाभी की दहशत-भरी चीखों पर जब तक सारा घर पहुँचा,  खून से लथपथ भइया अंतिम साँसें ले रहे थे और बदहवास काजल भाभी ने दौड़ कर अपने को कमरे में बन्द कर लिया था। कुछ दिन पहले सुमित्रा ताई ने ठीक कहा था,

‘सुरेश के पास बहू को अकेले नहीं भेजना,  किसी के साथ भेजो या सुरेश के हाथ बाँध कर रखो, वर्ना कुछ भी हो सकता है। मुझे तो उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं लगती,  नीलू की माँ।’“

”अम्मा को ताई की वो बात कितनी बुरी लगी थी, पर सच तो ये था कि भइया की दिन-ब-दिन खराब होती दिमागी हालत उन्होंने भाँप ली थी। हम लोग उन्हें झेलने के अभ्यस्त हो चुके थे शायद इसीलिए फ़र्क पता नहीं लगता था। सच कहूँ उषा,  पिंजड़े में बन्द खूंख्वार जानवर के सामने भाभी को हम सब परोसते रहे- इस उम्मीद में कि शायद भइया ठीक हो जाएँगे।“ नीलांजना का स्वर कडुआ आया था।

”काजल भाभी को पुलिस में किसने दिया है, नीलू?“

”सब कुछ इतना अचानक घटा कि किसी को होश ही नहीं था। पड़ोस के रामलाल जी ने फ़ोन करके पुलिस बुला ली थी। उत्तेजित बाबूजी ने काजल भाभी के खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी। कोख-जाए के लिए अम्मा-बाबूजी विकल थे। जिसकी ज़िंदगी मौत से बदतर थी,  जिसके मरने की मन-ही-मन सब कामना करते थे। मौत के बाद वह कितना प्रिय हो उठा था, बता नहीं सकती........।“

”बेचारी काजल भाभी .... उनका क्या होगा?“

”उन्हीं की मदद हमें करनी है, उषा। मैं भरी अदालत में भाभी के ऊपर हुए अत्याचारों को बताऊंगी। वे निर्दोष हैं। दोषी हम लोग हैं जिन्होंने उन्हें इस स्थिति तक पहुँचाया है।“

”एक बार फिर सोच ले, तेरे इस फैसले का अम्मा-बाबूजी पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। अच्छा हो उन्हें ही समझा, शायद गुस्सा ठंडा होने पर वे भाभी को माफ़ कर दें।“

”उन्हें समझा पाना असम्भव है, उषा! बेटे की मौत से वे बदले की आग में जल रहे हैं;  पर मैं काजल भाभी को इस आग में नहीं जलने दूंगी,  ये मेरा पक्का फैसला है,  भावुकता नहीं।“

”अगर अदालत ने उन्हें छोड़ भी दिया तो वे कहाँ जाएँगी, नीलू?“

”दुनिया बहुत बड़ी है उषा,  किसी महिला संस्था में कहीं-न-कहीं उन्हें शरण जरूर मिलेगी।“

”पर उनके माथे पर हत्या का कलंक लग गया है,  समाज उन्हें जीने नहीं देगा।“

”लंदन में यही भारतीय स्त्री अत्याचारी पति को जलाकर मुक्ति पा सकती है,  अपना नया जीवन जीने को स्वतंत्र है,  फिर यहाँ वैसा क्यों संभव नहीं है, उषा?  इसीलिए न कि हम लड़कियों को बचपन से पति की क्रीत- दासी का रोल निभाने की ट्रेनिंग दी जाती रही है? लड़कियों की इस भूमिका में बदलाव लाना है, उषा। मैं उन्हें अपने पास रखूंगी,  उसके लिए किसी का भी विरोध सह सकती हूँ मैं,  पर भाभी के प्रति प्रायश्चित तो करना ही है। वह अपने पाँवों पर खड़ी हो जाएँ, यही मेरा उद्देश्य है। तू मेरा साथ देगी न उषा?“

”मैं तुझसे कब अलग रही हूँ,  नीलू,  बता क्या करना होगा?“ उत्तेजित नीलांजना को मुग्ध दृष्टि से ताकती उषा के स्वर में दृढ़ निश्चय था।

”सबसे पहले हमें एक वकील करना है।  भाभी को तुरन्त ज़मानत पर छुड़ाना जरूरी है। एक बात और, अभी मेरे पास भाभी को रखने की कोई जगह नहीं है,  उन्हें अपने घर रख सकेगी,  उषा? मुझे काँलेज में जाँब मिल रहा है,  वहीं क्वार्टर भी मिल जाएगा,  तब तुझे परेशान नहीं करूँगी।“

”इसमें परेशानी की कोई बात नहीं, नीलू,   पर तेरी नौकरी पर काजल भाभी की वजह से कोई आँच न आ जाए?“ उषा शंकित थी।

”नहीं, उसके लिए मैं पूरी तरह से निश्चिन्त हूँ। काँलेज की प्राचार्या मेरे जीवन के इस कड़वे सत्य से अच्छी तरह परिचित हैं। सच कहूँ तो उन्होंने हमेशा मुझे हिम्मत दी है,  वर्ना मैं अपनी कुंठाओं में जकड़, शायद कुछ न कर पाती। उन्होंने मेरी कुंठाएँ दूर कर,  मुझे आत्मविश्वास दिया हैं।“

”तब क्यों न हम उन्हीं के पास चलें, वही किसी अच्छे वकील की व्यवस्था कर देंगी। उनका अनुभव हमारे लिए जरूरी है ,नीलू।“

”हाँ, यही ठीक रहेगा। वैसे भी अपने इस फैसले के बाद वापस घर तो लौट नहीं सकती। मेरे रहने की भी उन्हें ही व्यवस्था करनी होगी।“

मुंह पर आयी उत्साह की चमक के साथ नीलांजना प्राचार्या के घर जाने को उठ खड़ी हुई थी।

उसका सच

बाई आंटी और गाइड अंकल को हम बचपन से देखते आए थे। बाई आंटी जहाँ से आई थी, वहाँ स्त्रियों के लिए ‘बाई’ सम्मान-सूचक शब्द होता था, इसीलिए अम्मा उन्हें ‘बाई’ और हम उन्हें ‘बाई आंटी’ पुकारते थे। हमारे लिए बाई आंटी एक शापग्रस्त राजकुमारी थीं और गाइड अंकल वह राक्षस, जिसने उन्हें जबरन अपनी कैद में रख लिया था। उस बेमेल जोड़े को देख सब ताज्जुब करते थे-क्या सोच मेम-सी गोरी-चिट्टी, सुन्दर बाई जी को उनके मां-बाप ने काले-मोटे भूत-से गाइड साहब के साथ बाँध दिया था? एक दिन अम्मा से जब वही बात पूछी तो उन्होंने जोरों की डाँट लगाई थी,


”क्या रंग-रूप ही सब कुछ होता है? असली चीज़ आदमी का दिल होता है। गाइड साहब का सोने का दिल है। खबरदार जो फिर कभी उल्टी-सीधी बात की, समझ गई न?“

अम्मा की डाँट ने दोबारा फिर वही सवाल भले ही न पूछने दिया था, पर अन्तर में वह प्रश्न हमेशा उमड़ता-घुमड़ता रहा। इन सबके बावजूद क्रिसमस के दिन हमें गाइड अंकल की सुबह से प्रतीक्षा रहती थी। उस दिन ढेर सारे फल-मिठाइयों की टोकरी के साथ बड़ा-सा केक लाते गाइड अंकल, हमें किसी देवदूत से कम नहीं लगते। उनके आते ही हम उन्हें ‘हैप्पी क्रिसमस अंकल’ की बौछारों से भिगो डालते। अपने इर्द-गिर्द जमा बच्चों को देखते ही उनके चेहरे पर स्नेहिल मुस्कान बिखर जाती। हमारी मनपसंद टाफियाँ पाँकेट से निकालते हॅंसते हुए हमें थमाते जाते,

”ये लो मुन्नी तुम्हारा लाली पाँप, और ये रहा मिल्क चाकलेट, हमारे अनुज बेटे के लिए।“

उस उम्र में हम कभी सोच भी न सके कि जो गाइड अंकल हम बच्चों पर जान छिड़कते थे उनका अपना घर बिन बच्चों के कितना सूना था। गाइड अंकल और बाई आंटी हमारे घर के हर दुख-सुख में शामिल थे, पर दादी के कारण उनकी पहुंच घर के बाहर तक ही थी। उनके आने पर उन्हें अलग रखी प्लेटों में ही नाश्ता दिया जाता। बाई आंटी ने जान कर भी शायद उस बात को हमेशा अनदेखा किया था।

अपने दो कमरों के छोटे-से घर को बाई आंटी ने ऐसा सजा रखा था कि हम मुग्ध देखते रह जाते। गाइड अंकल के बनाए कागज के गुलाबों के लिए न कभी हमारी फ़र्माइश ख़त्म होती न उनके हाथ हमारे लिए फूल बनाते थकते। अपनी फ़र्माइशें पूरी कराते हम सोच भी नहीं पाते कि हमने उनका पूरा दिन अपने नाम करा लिया था।

गाइड अंकल का सामान खरीदने-बिकवाने की दलाली का काम उन दिनों जोरों से चल रहा था। अपना सामान बेचकर अंग्रेज परिवार अपने देश वापस जा रहे थे। उन दिनों अंग्रेजों के प्रति लोगों के मन में द्वेष भाव भले ही रहा हो,  पर उनके सामान के लिए हिन्दुस्तानियों के दिल में बहुत मोह था। मुहल्ले का शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहाँ गाइड अंकल की मदद से कोई फ़र्नीचर, सजावटी सामान, परदे-गलीचे या क्राकरी न आ गई हो। उन चीजों को बिकवाने के लिए उन्हें अंग्रेजों से अच्छा कमीशन मिल जाया करता था। सामान बिकवाने में गाइडेंस के कारण ही अंग्रेजों ने उन्हे ‘मिस्टर गाइड’ का ख़िताब दिया था। बाद में यही नाम उनका परिचय बन गया था। उन दिनों उनके घर रोज चिकन-मीट पकता था। हमारे घर में उनके लिए अलग बर्तन रखे जाने का एक यह भी कारण था। अम्मा और दादी मीट देख भी नहीं सकती थीं।

अम्मा, जब अचानक ज्यादा बीमार पड़ गई तो हम सब घबरा गए थे। उस वक्त बाई आंटी ने पूरे घर और अम्मा को सम्हाला था। रात भर अम्मा के माथे पर पानी की पट्टी बदलती बाई आंटी,  न जाने कब अपने घर के काम निबटाती। दीनू की मां से हमारे लिए चाय-नाश्ता बनवा,  अम्मा की तरह प्यार से खिलाती थीं। अम्मा के किचेन में उनका प्रवेश निषिद्ध था,  पर उन्होंने कभी इस बात का बुरा नहीं माना। अगर मन में कभी बुरा लगा भी तो कभी ज़ाहिर नहीं किया। अम्मा की उस बीमारी में भी बाई आंटी ने लक्ष्मण-रेखा नहीं लाँघी। अब सोचती हूँ तो समझ में नहीं आता अपने लिए किसी की घृणा को भी क्या उस तरह मान दिया जा सकता है? क्या वह इसी धरती पर जन्मीं थीं? अम्मा के पानी माँगने पर वह हममें से किसी को पुकारती थीं। खेल छोड़कर आने पर हमारी झुँझलाहट स्वाभाविक ही होती,

”भला यह भी कोई बात हुई, सारा काम कर सकती हैं,  अम्मा के मुँह में दो बूँद पानी नहीं डाल सकतीं!“ हम झुंझलाते।

”नहीं डाल सकती बिटिया , वर्ना तुम्हारी अम्मा का धरम भ्रष्ट हो जाएगा।“ अपनी मजबूरी वह किस आसानी से बता जातीं।

बाई जी और गाइड साहिब क्रिस्तान थे, हम बच्चों ने उनकी बाजार से लाई मिठाई-मेवा खूब खाई, पर उन्होंने हमेशा यह ध्यान रखा उनके घर में पकाया खाना हम कभी न चखें। हालाँकि बाई आंटी अपने घर में बहुत अच्छा खाना बनातीं, पर हमें उसका अंश भी नहीं देतीं। कभी उनकी कंजूसी पर बेहद गुस्सा आता-

”अपने लिए इतना अच्छा खाना बनाती हैं, हमारे लिए रद्दी केक बाजार से लाती हैं। हम आपसे नहीं बोलेंगे।“

नन्हीं कविता को गोद में उठाती बाई आंटी की आँखें भर आती।

”नहीं बिटिया रानी,  हम तो तुम्हारे लिए बाजार से सबसे बढ़िया केक लाए हैं, ये हमारा खाना तो एकदम खराब हैं। देख लेना जो हम इसे मुंह में भी डालें।“

शायद बाई आंटी उस दिन सचमुच खाना नहीं खाती थीं।

उम्र की सीढ़ियाँ फलाँगते हमारे जीवन में बाई आंटी और गाइड अंकल का महत्व कम होता गया। हमारे साथ अम्मा की भी व्यस्तताएँ बढ़ती गई। बड़ी दीदी की शादी फिर भइया का विवाह निपटाती अम्मा से बाई कब-कहाँ छूट गई, पता ही नहीं चला। शादी-ब्याह के मौकों पर पुराने विचारों वाले परिवार के सामने बाई आंटी का प्रवेश निषिद्ध-सा था। कभी आ जाने पर अम्मा जैसे घबरा-सी जातीं। बड़ी ताई, चचिया सास की तरेरती निगाहों से वह डर जातीं। जल्दी से उन्हें किसी बहाने वापस भेज,  अम्मा चैन की साँस लेतीं। फिर भी चचिया सास बड़बड़ाती ही जाती,

”तुमने तो बहू हद ही कर दी,  जात-कुजात कुछ नहीं देखती। हमारा भी धरम भ्रष्ट करोगी।“

अम्मा की विवशता बाई आंटी ने समझ ली थी, इसीलिए बड़ी दीदी की शादी में साड़ी का पैकेट दूर से थमा,  वापस चली गई थीं। अम्मा खाने के लिए आग्रह करती ही रह गई थीं।

बड़ी दीदी की शादी के बाद घर में सन्नाटा छा गया था। बी0ए0 के लिए मुझे लखनऊ जाना पड़ा था। घर छोड़ते वक्त खूब रोई थी,  पर काँलेज के जीवन ने जल्दी ही घर का बिछोह भुला दिया था। होस्टेल की दुनिया ही निराली थी। शुरू में रैगिंग का डर भले ही हावी रहा, बाद में अपने को एक बड़े भरे-पूरे परिवार का सदस्य बना पाया था। जूनियर्स की तकलीफ में सीनियर्स बड़ी बहन बन, सहायता करती थीं। काँलेज-होस्टेल की दुनिया में ऐसी रमी कि अम्मा को खत डालने में भी देरी होने लगी थी।

गर्मी की छुट्टियों में जब घर आई तो अम्मा ने उदास स्वर में कहा था,

”बाई को देख आना, बहुत बीमार हैं।“

बाई आंटी को देख बहुत बड़ा धक्का लगा था, उनका सजा-सॅंवरा घर अस्त-व्यस्त था। पहली दृष्टि में ही घर की विपन्नता स्पष्ट हो उठी थी। स्टील के चमचमाते बर्तन-क्राकरी की जगह अल्यूमिनियम के भगौने,  कढ़ाही थी। गाइड अंकल अल्यूमिनियम के काले पड़े भगौने में खिचड़ी पका रहे थे। अन्दर कमरे में टूटी बाँध की खाट पर मैली दरी और चादर पर कृशकाय बाई आंटी पड़ी हुई थीं। उस स्थिति में नमस्ते करने की भी याद नहीं रह गई थी। पीछे से गाइड अंकल आए थे,

 ”जरा पहचानो तो देखो, ये अपनी रागिनी बिटिया आई है।“

”कौन......... रागिनी........ इधर आ बेटी.........“

”ये आपको क्या हो गया है, बाई आंटी?“ मेरा कंठ भर आया था।

हाथ जोड़, उन्होंने ऊपर की ओर संकेत कर दिया था। अचानक मेरी दृष्टि दीवार पर टंगे राम-सीता के चित्र पर पड़ी थीं। ये क्या, बाई आंटी तो हमेशा ईसा को पूजती थीं। फिर आज............?

गाइड अंकल ने एक केन की कुर्सी खींच, मुझसे बैठने को कहा था।

”ये सब कैसे हो गया? आंटी कब से बीमार हैं, अंकल?“

”मेरा बैड लक इसको खा गया, बेटी!“

”छिः, ये कैसी बातें करते हैं! अगर आप न होते तो बीस साल पहले ही खत्म हो जाती। मेरा दुर्भाग्य आपको भी............“

न जाने वे दोनों अपनी कौन-सी पहेली बुझा रहे थे, पर एक बात ज़रूर थी, उन दोनों में अगाढ प्यार जरूर था। थोड़ी देर उनके पास बैठ, भारी मन से घर लौट आई थी।

”अम्मा, गाइड अंकल और बाई आंटी को क्या हो गया? उनका घर तो एकदम बदल गया है।“

”हाँ बेटी,  सब कुछ बदल गया। बाई बेचारी को ये दिन भी देखने थे। अम्मा ने उसाँस छोड़ी थी।“

”पर उनके पास तो बहुत पैसा था, अम्मा............“

”जितना कमाया उतना उड़ा दिया। दोनों ही के दिल बड़े थे। कभी सोचा ही नहीं कभी उनका काम ख़त्म भी हो सकता है..........“

”क्या गाइड अंकल का काम अब नहीं चलता, अम्मा.........?“

”एक तो उम्र का तकाज़ा,  उस पर अब नीलामी माल खरीदने में किसको उतनी रूचि रह गई है! वो ज़माना और था। बेचारे बहुत मुश्किल मे हैं उस पर बाई भी पड़ गई हैं। डाँक्टर बुलाने के लिए भी पैसे नहीं हैं।“

”उन्होंने सारे मुहल्ले के लिए इतना किया,  क्या हम सब मिलकर उनका इलाज नहीं करा सकते?“

”उन दोनों का स्वाभिमान इस बात की इजाज़त नहीं देगा, दूसरे का एहसान याद रखने वाले लोग दुनिया में कम ही होते हैं। बहती गंगा में हाथ धो,  सब उन्हें अकेला छोड़, अलग हो गए, मुन्नी।“

दूसरे दिन सुबह सूजी की खीर बना, बाई आंटी के पास जा बैठी थी। गाइड अंकल ने आँखें मूंदे पड़ी बाई जी को पुकारा था,

”आँखें खोलो गौरी, देखो हमारी बिटिया तुम्हारे लिए क्या लाई है।“

बाई जी को उनके नाम से पुकारते गाइड अंकल को उसी दिन सुना था। मुश्किल से आँखें खोलती बाई आंटी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गई थी।

”अब जल्दी से उठिए आंटी, ये खीर चखकर बताइए कैसी बनी है.........“

मैं उन्हें खीर खिलाने को आतुर थी।

”मेरी बेटी के हाथ का बनाया तो अमृत ही होगा............“

”सिर्फ़ बातों से नहीं मानूँगी आंटी, खाकर बताना पड़ेगा। अंकल, जरा इन्हें उठाइए तो........“

हाथ का सहारा दे, हमने उन्हें तकिए के सहारे बैठा-सा दिया था। चम्मच से खीर उनके मुंह तक ले गई तो उनकी आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे थे।

”ये क्या, आप रो रही हैं, आंटी?“

गाइड अंकल ने आगे बढ़, प्यार से उनके आँसू पोंछे थे। अपनी नम आँखें छिपाने के लिए वे हमें अकेला छोड़ बाहर चले गए थे-

”तू कुछ देर तो बैठेगी न, बिटिया, मैं अपने काम निबटा कर आता हूँ।“

”हाँ-हाँ अंकल,  आप आराम से जाइए। मैं हूँ न आंटी के पास।“

मुश्किल से एक-दो चम्मच खीर गले से उतार बाई आंटी निढाल पड़ गई थी।

”उस जन्म में जरूर तू मेरी ही बेटी रही होगी...............“

”क्यों,  इस जन्म में आपकी बेटी नहीं हूँ?“ मैंने मान दिखाया था।

”इस जनम की बेटी न जाने कहाँ होगी....... कैसी होगी......“ उनकी आँखें फिर भर आई थी।

”आपकी कोई बेटी है, आंटी?“

उन्हें निरूत्तर पा, मैंने जिद पकड़ ली थी, ”कहाँ है आपकी बेटी? इतने दिनों तक आप दोनों अकेले क्यों रहते रहे? बताइये न, आंटी...........“

”क्या बताऊं,  कैसे बताऊं बेटी,  उन बातों को दुहरा पाना क्या आसान है?“

”न बताकर ही आपने अपनी ये हालत बना ली है, बाई आंटी! जानती हैं मन में छिपाकर रखी गई बात नासूर बन जाती है।“

”ठीक कहती है बेटी,  पर वे बातें दोहरा पाना आसान नहीं है, बिटिया...........“

”आपकी बेटी हूँ,  अपना दुख-दर्द मुझे सुना जरूर चैन पाएँगी,  कोशिश तो कीजिए।“

”जो सुनाऊं,  उसकी कहानी लिख सकेगी, मुन्नी?“ बाई आंटी की आँखें हल्के से चमक उठी थीं।

”पर मैंने तो कभी कोई कहानी नहीं लिखी, आंटी.............“

”तब रहने दे, क्या करेगी सुनकर! जी चाहता है मेरी कहानी वह पढ़े, मेरे मन की बात जान ले। मेरी बेटी तो मेरा दुख समझेगी न,  मुन्नी- मेरी कहानी लिखेगी, मुन्नी!“

”ठीक है आंटी, मैं आपकी कहानी ज़रूर लिखूंगी,  पर वह छपेगी या नहीं, इसका वादा नहीं कर सकती।“

”मेरे लिए इतना ही काफ़ी है बेटी,  वर्ना इस दुनिया से जाने के बाद भी दिल का बोझ चैन नहीं लेने देगा।“

”ऐसा क्या था आंटी? समझ लीजिए इस वक्त आपके पास आपकी बेटी ही बैठी है।“

अपना दायाँ हाथ उठा बाई आंटी ने मेरे हाथ पर रख दिया था। दो पल आँखें मूंद, मानो वह शक्ति संचय कर रही थीं। धीमे स्वर में उन्होंने अपनी कहानी शुरू की थी-

”उस दिन सुबह-सुबह बा ने जगाया था,

‘जल्दी उठ गौरी, घर में त्योहार है, तू घोड़ा बेच सो रही है?’“

”बा की बात सुनते ही नींद गायब हो गई थी। अरे आज ही तो गणेश चतुर्थी है। पिछले कितने दिनों से शारदा दीदी हमारे नृत्य का रिहर्सल करा रही थीं। इस बार के समारोह में हमारे गरबा ग्रुप को सबकी वाहवाही पानी थी। जल्दी से नहा-धो, रंगोली सजाने बैठी थी। मेरी रंगोली हमेशा सबसे ज्यादा सुन्दर ठहराई जाती थी। आज भी मुझे ही बाजी जीतनी थी। बा तरह-तरह के पकवान बनाने में व्यस्त थीं। नृत्य के लिए बा ने मेरे लिए कीमती गुलाबी ज़री काम का लहॅंगा-सेट बनवाया था। लग रहा था कैसे जल्दी से रात आ जाए और मैं सितारों-जड़ी अपनी चुन्नी ओढ़, गरबा करूँ।“

”आखिर वह क्षण आ ही गया । तारों-भरे आकाश के साथ सितारों-जड़ी ओढ़नी ओढ़े,  हम ढेर सारी लड़कियों के आगे चाँद भी शर्मा गया था। नृत्य के बाद थाल भर मिठाइयाँ सबको मुझे ही देनी थीं। उस दिन मैं गाँव के जमींदार की लाड़ली बेटी नहीं,  सबकी दुलारी बिटिया बन आशीष पाती थी। इस परम्परा को बापू ने शुरू किया था। सबसे आशीर्वाद पाना मेरा गौरव था।“

”वहीं उस रात उसने मुझे देखा था। मिठाई के लिए न हाथ बढ़ाया,  न कुछ कहा, बस अपलक मुझे निहारता रह गया । संकोच से मैं मर ही गई थी। धीमे से कहा था, ‘मिठाई लीजिए......’“

”‘मुझे मिठाई नहीं,  मिठाई वाली चाहिए।’ धीमे से कहे उसके शब्दों पर मैं रोमांचित हो उठी थी।“

”‘छिः......’हाथ का थाल पीछे खड़ी दासी को थमा,  घर के अन्दर भाग गई थी। साँस धौंकनी-सी चल रही थी। बार-बार उसका सलोना मुखड़ा, आँखों के आगे नाच रहा था। कौन था वह, पहले तो उसे कभी नहीं देखा..........“

”जब से सोलह साल पूरे कर, सत्रहवें में आई थी, बा मेरी शादी के लिए चिन्तित हो उठी थीं। उन्हें मेरा नदी-सा उमड़ता रूप-यौवन डराता था, कहीं ऊंच-नीच हो गई तो ख़ानदान की नाक कट जाएगी, और मैं थी कि खुली बछेरी-सी इधर-उधर डोलती ही रहती।“

”सावन का झूला झुलाती सहेलियाँ गीत गाते-गाते अचानक रूक गई थीं।“

”‘क्या हुआ, गाती क्यों नहीं?’ झूले की ऊंची पेंग पर चढ़ी मैं आसमान छू रही थी।“

”खिल-खिल हॅंसती सहेलियों ने पीछे की ओर इशारा किया था। अरे ये तो वही था। न जाने कब, कहाँ से आकर, वह मुझे झुला रहा था! घबराकर ऊंची पेंग पर चढ़े झूले से नीचे कूद पड़ी थी। घुटने बुरी तरह छिल गए थे। आँखों में सावन उमड़ आया ।“

”सबसे पहले उसी ने आकर उठाया था। हाथ जोड़ माफ़ी माँगी थी। घावों को इतने हल्के से सहलाया, मानो उसके हाथ नहीं,  सेमल की रूई थी। सहेलियाँ न जाने कब खिसक लीं। उसके कंधे पर सिर रख, सिसक उठी थी।“

”नही गौरी नहीं,  इन आँसुओं के लिए जो चाहे सज़ा दे दे, कसम है जो उफ़ भी करूँ।“

”तुम मुझे क्यों परेशान करते हो?“

”मैं तुमसे प्यार करता हूँ। इतना प्यार जिसमें सारे समुन्दर समा जाएँ।“

”पर मैं तुमसे नहीं करती। बा कहती हैं ये गन्दी बात होती है।“

”तुम्हारी बा गलत कहती हैं। वो तुम्हारे बापू को प्यार करती हैं,  क्या ये गन्दी बात है?“

”बा की तो बापू से शादी हुई है।“

”मैं भी तुमसे शादी करूँगा।“ उसने दृढ़ स्वर में कहा था।

”हमें ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं।“ शर्माकर हथेलियों में मुंह छिपा लिया था।

”फिर कैसी बातें अच्छी लगती हैं?  वही करूँगा।“ वह हल्के-हल्के हॅंस रहा था।

”कैसी भी नहीं.........“ अपने को उसकी पकड़ से छुड़ा भाग गई थी, मेरे पीछे वह हॅंसता खड़ा रह गया था।

”बापू को अपने ब्राह्यणत्व का बहुत गर्व था। मेरा वर कुल-गोत्र में ऊंचा ही होना चाहिए। इकलौती बेटी के लिए उनके न जाने कितने सपने थे। कोई प्रस्ताव उन्हें भाता ही नहीं था।“

”उससे मेरी अक्सर मुलाकातें होने लगी थीं। सहेलियों को उसने न जाने कैसे मोहाविष्ट कर लिया था कि वे उसके गीत गाते न थकतीं। इन सबके बावजूद उससे मेरी शादी असम्भव थी। कुल-गोत्र, आर्थिक स्थिति,  किसी भी तरह वह हमारे परिवार के बराबर नहीं बैठता था। बापू की ज़िद और क्रोध से पूरा खानदान डरता था। उनके सामने वह प्रस्ताव रखने की हिम्मत भी, दुस्साहस ही था। सब कुछ जानते हुए भी उसकी बुलाहट पर कोई न कोई बहाना बना, मैं पहुंच ही जाती। बा को शिकायत होने लगी थी,  अब मैं उनके पास रहते हुए भी, सहेलियों के पास पहुंचने को व्याकुल रहती। बापू ने मेरे लिए घर-वर की जोरों से तलाश शुरू कर दी थी।“

”उस दिन घर में खूब तैयारियाँ हो रही थीं। बा उमगी-उमगी घर सजाने में व्यस्त थीं। मुझे अच्छे कपड़े पहन तैयार होने को कहा गया था। मेरे विस्मय पर बा ने प्यार से मेरी ठोढ़ी उठा, माथा चूम लिया था। मुंहलगी दासी कनिया ने कान में फुसफसाया था,

‘अरी दिदिया रानी, आज आपके ‘वो’ आ रहे हैं, समझ गई न?’“

”मैं सुन्न पड़ गई थी, अब क्या होगा? उससे बिछुड़ कर तो जीते जी मर जाऊंगी। बा से थोड़ी देर के लिए अपनी सहेली राधा से मिल आने का बहाना कर, घर से बाहर आ सकी थी। पूरी बात सुनते ही वह गम्भीर हो गया था।“

”आज हमारे इम्तिहान की घड़ी आ ही गई, गौरी। अब इसी पल तुम्हें मुझे या अपने परिवार में से एक को चुनना है। बोलो तुम्हारा क्या फ़ैसला है?“

”मुझे मौन खड़ा देख वह नाराज़ हो गया था-“

”अगर मुझे पता होता तुम्हारे मन में मेरे लिए इतनी-सी भी जगह नहीं, तो बहुत पहले ही ये गाँव छोड़ कहीं दूर चला गया होता। मैंने तुम्हारे प्यार में धोखा खाया है, गौरी।“

”नहीं.... नहीं,  मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ,  तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकती...... तुम मुझे गलत समझ रहे होए मोहन.....“ मैं रो पड़ी थी।

”ठीक है,  तो चलो अभी इस गाँव को छोड़,  कहीं ऐसी जगह चले जाएँगे,  जहाँ हमें कोई न खोज सके। चलोगी, गौरी?“

”तुम बापू को नहीं जानते, वे हमें ज़िन्दा नहीं छोड़ेगे। अपने मान-सम्मान के लिए उन्हें किसी की चिन्ता नहीं है।“

”मेरे साथ डरने की ज़रूरत नहीं है गौरी,  मुझ पर विश्वास है न?“

”पर ........ हम कहाँ जाएँगे?“

”पर-वर के लिए अब टाइम नहीं है, या तो अभी मेरे साथ चलो,  वर्ना समझ लेना मै तुम्हार लिए मर चुका हूं।

ठीक है, मै तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं।“ काँपते स्वर में मैं इतना ही कह सकी थी।

”उसने एक भरपूर नजर मुझ पर डाली थी। आने वाले अतिथियों को दिखाने के लिए बा ने ढेर सारे गहने पहनाए थे। नए कपड़ों में मैं शायद ज्यादा ही सुन्दर लग रही थी।“

”तो चलो,  एक पल की देरी भी ठीक नहीं........“ मेरा हाथ पकड़ वह चल दिया था। उसके घर में दूसरा था ही कौन जिसके लिए वह सोचता, जिससे कुछ पूछता! निपट अकेले बचपन काट, जवानी की दहलीज़ पर मेरा साथ उसे मिला था। दूसरों की दया पर आश्रित बचपन, जवानी के आते ही फुफकार कर उठा था। उसे वो पराश्रयी ज़िन्दगी नहीं जीनी थी। गाँव के मुखिया से लड़, ऊपर तक जा पहुंचा था। दूसरों के कब्ज़े से अपनी जमीन छुड़ाकर ही उसने दम लिया था। उसके जीवट की सब तारीफ़ करते थें। आज उस जमीन का मोह छोड़, वह उसके साथ अनजान पथ पर चल दिया था।

”रेलगाड़ी में बैठते ही मेरा मन बा और बापू के लिए हाहाकार कर उठा था,  न जाने उनसे ये सदमा कैसे झेला जाएगा! आँखों से आँसुओं की धार बह चली थी। आसपास के मुसाफ़िर चौंक गए थे। तभी उसने बात बनाई थी,

‘शादी के बाद पहली बार माँ का घर छोड़ा है, इसीलिए माँ की याद आ रही है।’ दो चार स्त्रियों ने मुझे ढाढ़स भी बॅंधाया था,

‘अरे लड़की की जात को ये दुख झेलना ही पड़ता है। कहीं जन्म ले, कहीं और जा बसे। धीरज धर बेटी,  बाद में यही पराया घर अपना लगने लगेगा।’“

”रेलगाड़ी की लम्बी दो रातें बिता हम इलाहाबाद के पास फूलपुर पहुँचे थे।“

”उसके पास जो पैसे थे उनसे दो-चार दिन धर्मशाला में कट गए, उसके बाद गहनों का नम्बर आया। इस बीच धर्मशाला के चैकीदार की मदद से एक सेठ के यहाँ उसे पहरेदारी का काम मिल गया। ज़िन्दगी चल पड़ी थी। कभी अपने घर की याद कर खूब रोती,  पर जीवन के अभावों पर कभी नहीं रोई।“

”कुछ दिनों से पड़ोस की कोठरी में एक क्रिश्चियन परिवार आकर रहने लगा था। पुरूष एकदम काला भुच्च और पत्नी एकदम जैसे परी-कन्या। हम दोनों उस बेमेल जोड़ी पर खूब हॅंसते। पुरूष अपनी पत्नी की हर माँग पूरी करने मे ही जीवन को सार्थक करता। पत्नी भी उसके आते ही फ़र्माइशों की पिटारा खोल डालती। बेचारा थका-माँदा पति, फिर फ़र्माइशें पूरी करने में जुट जाता। उन्हें देख मोहन मुझे बाँहों में ले खूब प्यार करता,  अपने भाग्य को सराहता जो उसे मुझ जैसी पत्नी मिली थी।“

”कुछ दिनों से सुबह-सुबह मितली आती देख, वह मुझे डाँक्टर के पास ले गया था। डाँक्टरनी ने मुस्कराते हुए बधाई दी थी,

‘अब तुम बाप बनने जा रहे हो, इसकी अच्छी तरह देखभाल करना।’“ खुशी से भर उसने मुझे ऊपर उठा लिया था।

”उन नौ महीनों उसने मुझे फूल-सा रक्खा था। पारो का जनम हम दोनों के लिए बहुत शुभ सिद्ध हुआ था। सेठ ने उसे तरक्की देकर अपना खास बाँडीगार्ड बना लिया था। तनख्वाह बढ़ जाने से घर में भी खुशहाली आ गई थी। रेडियो पर आने वाले फिल्मी गीत सुनने हमारी पड़ोसिन ट्रेसा भी आने लगी थी।“

”रेडियो के गीतों पर नाचती ट्रेसा नन्ही पारो को गोद में उठा उसे भी चक्कर खिलाती जाती। खिलखिल हॅंसती पारों का मुंह चूमती ट्रेसा,  अपने को भूल जाती। ट्रेसा हमें बहुत अपनी लगने लगी थी। घरवालों से बिछुड़, वह मेरी बहन बन गई थी। मुझे दीदी पुकारने के कारण मोहन उसका ‘जीजा’ बन गया था। जीजा-साली की नोक-झोंक पर हम खूब हॅंसते।“

”जिन्दगी आराम से गुजर रही थी। कभी बा और बापू बहुत याद आते। जी चाहता उन्हें ख़त डाल माफ़ी माँग लूँ, पर बापू का डर आड़े आ जाता-कहीं यहाँ पहुंच उन्होंने मोहन को कुछ कर दिया तो? सोचती थी, एक बार अकेली पारो को ले, उनके पास अचानक पहुंच,  पाँवों पर पड़, माफी माँग लूँगी। नातिन का मोह छोड़ पाना क्या आसान होगा? “

”पारो एक साल की हो गई थी। ट्रेसा की तो वह जान ही थी। अक्सर अनजान लोग उसे ट्रेसा की बेटी समझने की भूल कर बैठ्ते। ट्रेसा का मुंह गर्व से चमक उठता,

‘दीदी,  ये तुम्हारी बेटी मैं ले लूँगी, समझीं। अपने लिए एक और बेटी ले आओ।’“

”मुझसे एक और बेटी लाने को कह रही है, अपने लिए क्यों नहीं ले आती?“

”ला सकती हूँ, बशर्ते वह पारो जैसी गोरी-सी गुड़िया हो, अपने बाप-सी भुतनी नहीं........“

”छिः, पति को भला ऐसे कहा जाता है! कितना प्यार करते हैं वह तुझे! “ बड़ी बहन की तरह उसे समझाती और वह हॅंसती रहती।

”उस साल इलाहाबाद में कुम्भ मेला लग रहा था। दूर-दूर से तीर्थयात्रियों से भरी रेलें इलाहाबाद पहुंच रही थीं। बापू हमेशा कुम्भ मेले पर गंगा-स्नान के लिए इलाहाबाद जाया करते थे। मन में बार-बार आता, क्या पता बापू और बा से वहीं मिलना हो जाए। उत्सुकता से मैं कुम्भ-स्नान की प्रतीक्षा कर रही थीं। पारो के लिए मेले में पहनाने के लिए नई फ्राकें खरीद कर रख ली थीं। उसे देख बापू-बा कितने खुश होंगे! क्ल्पनाओं में डूबी ये नहीं सोच पाती थी कि हजारों-लाखों लोगों में बापू-बा से मिल पाना क्या संभव होगा?“

”गंगा-स्नान के लिए जाते समय ट्रेसा भी हमारे साथ जाने को तैयार थी। मोहन ने चिढ़ाया था, ‘अगर गंगा में डुबकी लगा ली तो हिन्दू बनना होगा,  बोलो है मंजूर?’“

”क्यों, क्या मैं हिन्दू नहीं हूँ? ये देखो अब तो मैं सिन्दूर भी लगाती हूँ।“

”मोहक मुस्कान के साथ कही उसकी बात पर मैं चौंक उठी थी। इतने बड़े परिवर्तन पर मेरी दृष्टि भी नहीं पड़ी थी। कब उसने मांग भर सिन्दूर लगाना शुरू कर दिया था, क्यों?  उतनी बड़ी बात मैं देख भी न सकी। एक काँटा-सा गड़ा महसूस किया था मैंने। इधर साली-जीजा की नोक-झोंक, हॅंसी-मजाक कुछ ज्यादा ही होने लगा था। ठीक है आज घर लौट कर बात करनी ही होगी।“

”उत्साह कम हो गया था, पर मेले में तो जाना ही था। मेले की रौनक में मन का अवसाद छंट-सा गया था। पिता के कंधे पर चढ़ी पारो ताली बजा हॅंस रही थी। गंगा में डुबकी लगा पास के हनुमान मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने अकेले ही जाना पड़ा था। मन्दिर के भीतर जाने को ट्रेसा तैयार नहीं थी, उसके साथ मोहन को भी बाहर रूकना पड़ा था। भीड़ में पारो को साथ ले जाने की बात ही बेकार थी। उन दोनों को साथ छोड़ते न जाने क्यों अच्छा नहीं लग रहा था।“

”जल्दी-जल्दी पूजा कर बाहर आई थी। पूरे समय भगवान के ध्यान के साथ, उन दोनों का साथ याद आता रहा। बाहर वे कहीं नहीं थे। आँखें फाड़-फाड़कर चारों ओर देखती मैं पागल हो रही थी। शायद भीड़ में इधर-उधर हो गए हों। पारो का नाम ले, पागलों की तरह दौड़ते देख, मेले के स्वंय सेवकों ने पुलिस-केन्द्र तक प्हुंचा दिया था। पूरी बात सुन पुलिस अधिकारी हॅंस पड़े थे,

‘बच्ची के साथ उसका बाप है फिर भी आप डर रही हैं! हमारी जीप आपको घर पहुंचा देगी। बच्ची के साथ आपके पति वहीं पहुंच जाएँगे। आप बेकार परेशान हो रही हैं।’“

”धक-धक करते दिल के साथ घर पहुंची थी। बन्द दरवाजे का ताला देख फिर रो पड़ी थी। तसल्ली दे पुलिस वाले चले गए थे। दोपहर से रात हो गई, पर आने वालों का पता नहीं। देर रात ट्रेसा के पति आए थे। उनका काम ही ऐसा था कि वह जल्दी घर नहीं लौट पाते,  इसीलिए ट्रेसा का ज्यादा समय हमारे साथ बीतता था। सब देख-सुन कर वह भी घबरा गए थे। अपने कमरे का ताला खोलने के काफ़ी देर बाद वे फिर आए थे। हताशा-निराशा उनके चेहरे पर लिखी हुई थी।“

”‘अब उनकी खोज करना बेकार है। वे दोनों चले गए....... हमेशा के लिए.......’ सिर पकड़ वे पास पड़ी कुर्सी पर लुढ़क गए थे। अवाक् मैं उनका मुंह ताकती रह गई थीं- ये क्या कह दिया उन्होंने!“

”सारे ज़े़वर और नगदी के साथ ट्रेसा उसके साथ चली गई। साथ में ले गई थी मेरा खून,  मेरे ज़िगर का टुकड़ा पारो.............“

”पारो......“ चीखकर मैं जमीन पर गिर पड़ी थी। दिन और रातें कैसे बीतीं, याद नहीं,  इतना जरूर था कि ट्रेसा के पति साइमन साया बन हर वक्त मेरे आसपास बने रहते। उन्हीं ने जबरन मुसम्मी का रस मुंह में डाल, मुझे जीवित रखा था। होश में आने पर चारों ओर घना अंधेरा था। बा-बापू के साथ,  उस स्थिति में नाता जोड़ पाना असम्भव था। ज़हर खा मर जाना चाहा था,  पर हमेशा शान्त रहने वाले साइमन उस दिन दहाड़ उठे,

‘किसलिए मरना चाहती हो? कोई दो बूँद आँसू बहाने वाला भी है? ऐसी भी क्या मौत जिस पर कोई न रोए! मै तुम्हें यह मौत नहीं लेने दूंगा।’

अवाक् उनका मुँह ताकती रह गई थी।

”‘तुमसे कभी कुछ नहीं चाहूँगा,  पर क्या हम दो दोस्तों की तरह जिन्दगी नहीं काट सकते? इस ज़िन्दगी का बोझ अकेले ढो पाना मुझसे नहीं होगा..... नही होगा।’ हाथों में चेहरा ढाँप वह सिसक रहे थे। अपने को संयत कर उन्हें सम्हाला था।“

”वह शहर छोड़ हम यहाँ आ बसे। पुश्तैनी मोटर- पार्ट्स का बिजनेस छोड़,  साइमन मोटर कार बिकवाने वाले दलाल बन गए। मेरे लिए पक्की वैष्णवी रसोई की व्यवस्था कर, उन्होंने संकोच से कहा था,

 ‘मैं बाहर खाना खा लिया करूँगा,  आपके लिए ज़रूरी सामान मॅंगवा दिया है।’

”वाह ऐसे निभाएँगे दोस्ती? और हाँ, आज अपनी दोस्ती की शुरूआत हम जश्न मनाकर करेंगे।“

”साइमन का ताज्जुब ठीक ही था, हमेशा की शान्त गौरी उस दिन पहचानी नहीं जा सकती थी। ज़िद करके मैंने उस दिन चिकन पकाया था। साइमन परेशान दिख रहे थे। उन्हें खाना परोस अपने लिए परोसा था। प्लेट में चिकन डालते देख वह असहज हो उठे थे,

‘ये क्या, आप तो वेजीटेरियन हैं,  प्याज भी नहीं खातीं, फिर.........“

”उनके सवाल का जवाब दिए बिना चिकन पीस मुंह में डाल, पूरी ताकत से दबा डाला था। तू समझ सकती है बेटी,  वो क्षण कितना कठिन रहा होगा! वर्षो के संस्कार-आस्था मिटा पाना क्या सहज होता है!“

”सच कहूँ,  तो उस वहशी पल ऐसा लगा था, वैसा कर मानो मैंने मोहन से अपना बदला ले लिया था। उसे अपने जीवन से दूर ढकेल,  उसके साथ सारे रिश्ते तोड़,  अपने को मुक्त कर लिया था...........“

अचानक वह बेहद थक गई थीं।

”एक घूँट पानी देगी मुन्नी...... कहानी तो पूरी कर दूँ।“ दो घूँट पानी गले से नीचे उतार जैसे उन्होंने शक्ति पा ली थी। धीमे-धीमे अपनी बात वह कहती गई थीं-

”सच तो ये है मुन्नी,  साइमन के साथ बस दोस्ती-भर ही निभा सकी मैं। ट्रेसा ने जिस चेहरे से नफ़रत की,  वह कितना खूबसूरत हैं,  काश वह जान पाती! फिर भी कभी अपने को उन्हें सौंप न सकी। ऐसा नहीं कि हमारे बीच कभी कोई कमजोर क्षण न आया हो,  पर उस पल मैं बर्फ़ बनी रह गई। साइमन ने कभी जबरन अपने को मुझ पर थोपने की कोशिश नहीं की। शायद मुझसे ज्यादा वह मेरे मन को जानते हैं। एक बार कोशिश की थी,  उनका प्राप्य उन्हें दे दूँ,  पर उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा था,

‘तुम्हें साथ रखने में मेरा बहुत बड़ा स्वार्थ है,  इसीलिए कभी बदले में वो कुछ देने की कोशिश मत करना,  जो तुम मन से नहीं दे सकतीं। भीख मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता।“ मेरे बोझ को ढोते रहने में उनका क्या स्वार्थ हो सकता है, मुन्नी? शायद मेरी तरह वह भी ट्रेसा को भुला नहीं सके। उन दोनों की यादों के शव, हम दोनों पूरे जीवन, अपने कंधों पर ढोते रह गए...... बस। उनकी भावनाओं की मौत के लिए मैं जिम्मेवार हूँ, मुन्नी, क्यों नहीं उन्होंने किसी और का साथ चाहा? तू देख ही रही हैं, उम्र के साथ साइमन का काम कम होता गया है। हम दोनों ने जहाँ एक साथ एक-दूसरे का दुख बाँटा, वहाँ कुछ अच्छा समय भी साथ बिताया है। आज हम दोनों एक-दूसरे के पूरक बनकर भी अधूरे रह गए हैं।“

”गाइड अंकल आपको बहुत चाहते हैं, आंटी! आप भी उन्हें इतना मान देती हैं। जीवन में इतना भी कितने लोगों को मिल जाता है?“ मैंने उन्हें तसल्ली देनी चाही थी।

”जाते-जाते यही दुःख तो मथ रहा है मुन्नी,  साइमन को वो सब क्यों न दे सकी जो उस धोखेबाज को दे बैठी? क्या हक था साइमन का जीवन व्यर्थ करने का?“

”ऐसा क्यों सोचती हैं, आंटी! आपने उनका साथ दिया है। आपके साथ इस घर में वह कितने खुश रहते थे..........“

”कुछ न पाकर उन्होंने अपना सब कुछ मुझे दिया है, मुन्नी! ट्रेसा के जाने के बाद वह वापस अपने घर लौट सकते थे, किसी और लड़की से शादी कर सकते थे,  पर शायद मेरे प्रति ट्रेसा के अपराध का वह इसी तरह प्रायश्चित्त करते रहें। वह बहुत महान हैं। जानती है,  हमेशा वह मेरा मन पढ़ते रहे हैं। मेरी बीमारी में न जाने कब ईसा के चित्र की जगह,  मेरे राम और सीता का चित्र यहाँ लगा दिया। वे जानते थे,  सब कुछ बदल जाने पर भी भगवान के प्रति अपनी आस्था मैं नहीं बदल सकी। मेरे अन्तर्मन में हमेशा राम-सीता ही मेरे आराध्य रहे।“

कुछ रूककर फिर उन्होंने कहना शुरू किया था,

”इस जाती बेला ऐसा लग रहा है,  पूरी ज़िन्दगी अपने को धोखा ही देती रही। अनजाने-अनचाहे साइमन को बहुत प्यार करती रही,  पर मेरे संस्कारी मन ने कभी उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहा,  न जुबान ने साथ दिया। आज बार-बार यही लग रहा है, मेरे बाद कैसे जिएँगे वह? कौन है उनका....... काश पारो जैसी एक बेटी उन्हें दे जाती तो छोड़ जाना आसान होता...... उन्हें यूं अकेला छोड़ते कलेजे में हूक उठ रही है, मुन्नी........“

बाई आंटी रो रही थी।

”आप ऐसी बातें मत कीजिए आंटी! आप कहीं नहीं जाएँगी...... कभी नहीं जाएंगी।“ उनके साथ मैं भी रो रही थी।

”अगर तेरी कहानी पढ़ कभी मेरी पारो तेरे पास आए तो उसे बता सकेगी न, मुन्नी..... उसका पिता वो धोखेबाज नहीं,  वह तो एक चोर है जो मेरी बेटी छीन ले भागा था। उसका पिता साइमन है, जिसने उसकी माँ को प्यार- सम्मान और संरक्षण दिया है। बता मुन्नी, मेरा ये काम कर सकेगी न?“

मेरा उत्तर पाने के लिए बाई आंटी व्याकुल थी।

नम आँखों के साथ उनके हाथ की पकड़ से मुश्किल से अपना हाथ छुड़ा सकी थी।

”आपका काम ज़रूर पूरा करूँगी, आंटी! आपकी कहानी ज़रूर लिखूँगी......ज़रूर लिखूंगी।“ दृढ़ शब्दों में अपनी बात दोहराती, घर वापस आई थी।

पूरी रात सोते-जागते, शायद सुबह गहरी नींद सो गई थी। बाई आंटी के मन की बात गाइड अंकल को बताने का निश्चय कर,  मन हल्का हो आया था। अम्मा के झकझोरने पर चौंक कर उठी थी। उनकी आवाज बेहद घबराई हुई थी,

”उठ मुन्नी,  बाई हमें छोड़कर हमेशा के लिए चली गई.....“

”क्या .......आ.....! कैसे अम्मा, कल शाम तो उन्हें ठीक ठाक छोड़कर आई थी!“

”न जाने कब रात में दिल का दौरा पड़ा,  डाँक्टर बुलाने की भी मोहलत नहीं दी बाई ने। जिन्दगी-भर सबकी सेवा की, पर जाते समय किसी को आवाज भी नहीं दी। गाइड साहब का बुरा हाल है।“ अम्मा रो रही थी।

पीछे से आती अम्मा की पुकार अनसुनी कर, मैं बाई आंटी के घर की ओर दौड़ चली थी।