'माटी के तारे' उन बच्चों की कहानियाँ हैं जो अपनी निर्धनता के कारण उपेक्षित और अभिशप्त जीवन बिताने को विवश हैं। तिरस्कृत और उपेक्षित जीवन जी रहे इन बच्चों के मन में भी आकाशीय ऊॅंचाइयाँ छूने की आकांक्षा है। उनके समवयस्क बच्चे जब पीठ पर बैग लटकाए विद्यालय जाते हैं तब देश के ये लाल किसी चूड़ी, जूते, कालीन या पटाखे बनाने वाले कारखानों में हाड़-तोड़ मेहनत कर, कारखाने के धुँए को अपना बचपन अर्पित कर रहे होते हैं। यह धुँआ उनके नन्हें सीनों में धड़कता है। कुछ पा लेने, कर गुजरने की आग उनके अन्दर धधकती है। ज़रूरत है देश की इस भावी पीढ़ी के अन्दर छिपी चिंगारी को हवा देने की। यह पीढ़ी देश का भविष्य है।
संविधान द्वारा इन बच्चों को भी समान अधिकर दिये गये हैं, पर वे अपने अधिकारों से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। बाल श्रमिक या बंधुआ मजदूर बने रहना ही क्या इनकी नियति है? उनकी इस नियति के लिये कौन उत्तरदायी है, यह एक बड़ा प्रश्नचिह्म है। कागजों पर अधिकार लिख देने से उनकी सार्थकता पूर्ण नहीं होती। ये अधिकार उन हाथों तक पहुँचाये जाने चाहिए जिन्होंने तिरस्कार को अपनी नियति मान रखा है। इस दिशा में सबसे पहले इन बच्चों को शिक्षा द्वारा जागरूक बनाया जाना चाहिए। इस पुनीत कार्य में देश के प्रत्येक नागरिक का योगदान आवश्यक है। देश की इस भावी पीढ़ी का विकास करने से ही राष्ट्र सशक्त बनेगा।
अगर मेरी कहानियाँ इन नन्हें-मुन्नों के अन्दर छिपी चिंगारी को प्रज्ज्वलित कर सकें तो मेरा लिखना सार्थक है।
---पुष्पा सक्सेना
Very nice thoughts! Vandita
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